ओस

ओस से भीगी रात
भर देती है गलन से
और बढ़ जाती है वह
रज़ाई की ढाँपन से
हर रात कि कोई
बैठा होगा आकाश तले
ठिठुरता जूझता
भोर की आस में
हो ऐसा कि
छिन जाये सोच मेरी
या कि
उसे बिछौना मिले