सफ़र

देखूं आज मैं पीछे मुड़कर
लगता जैसे कल की बात
बात बात में मिला करती थी
निठल्लेपन पर पिता की डांट
गटक जाते थे जिसे सुनकर
दवा जरूरी कुनैन समझकर
अथक प्रयास थे चेष्टा हज़ार
खुला फिर सफलता का द्वार
कोशिशें भी रंग लाईं
अपने वज़ूद को पहचान दिलाई
कर्तव्य की कठिन डगर पर
अनुभव अनगिनत साथी अनेक
ऊंची नीची इस राह पर
कर आया हूँ लम्बा सफ़र