मेरे सुकून का एक ठिकाना सान्निध्य में माँ के एक बिछौना बनूँ वट छाया कोशिश उसकी रोकूं तपिश जहान भर की होती क्यों ना वह बेपरवाह आस -पास औरों की तरह अहसास का पता पा जाती है शायद खुद को मुझमें पाती है
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