Adventure शब्द आज तक बस पढ़ा ही था। व्यवहार में कभी प्रयोग में लिया नहीं था । Bear Grylls से उस दिन शायद थोड़ी ही पीछे रही थी।
एक समारोह में शामिल होना था। दूसरे शहर जाकर। यात्रा की शुरुआत जरूर हिचकोलों के साथ हुई पर दिन सामान्य रफ़्तार से ही चल रहा था।
परिचित के घर भी समय रहते पहुँच गयी थी।
यहाँ मेज़बान की मेहमान नवाज़ी का इंकार नहीं कर सकी और उनकी तकनीकी रूप से उम्दा कार ,जिसे फिलवक़्त कोई काम में नहीं ले रहा था , पर हाथ आजमाने की सोची। यहीं से शायद सारी कायनात मेरे विरूद्ध हो गयी। मेजबान महाशय को मनुहार व कार की चाबी सौंपने के अलावा तकनीक के बारें कोई इल्म नहीं था। हाल कुछ कुछ यहाँ भी ऐसा ही था , फ़िर भी आत्मविश्वास था कि तकनीक कोई भी हो गाडी चला लूंगी।
आत्मविश्वास तक तो बात ठीक थी लेकिन यहाँ तो चाबी ही key shell से बाहर नहीं निकली। जुलाई के मौसम के साथ साथ मेरे भी पसीने छूटने लगे। सुना था कोशिश करने वालों की हार नहीं होती ,आजमाया और चाबी खोल से बाहर आ गयी। चाबी घुमाते ही कार display board ने ब्लूटूथ से संपर्क का लालच दे डाला। लालच बुरी बला है – मानकर अंततः उससे भी हार मान ली। पर उस दिन सारी बलाएँ साथ ही चलने वाली थी। गाड़ी 500 मीटर भी नहीं चली थी कि fuel low की बत्तियां लाल हो गयी। एक राहगीर ने पूछने पर बताया कि निकटतम पेट्रोल पंप 1 किलोमीटर दूर है और वह भी मेरे गंतव्य के विपरीत दिशा में। आदत के उलट तेज रफ़्तार से पेट्रोल पंप पहुँचने का प्रयास किया ताकि धक्का भी लगवाना पड़े तो कम दूरी हो। flight -fight -fright हॉर्मोन के उच्च स्तर के साथ वहां तक पहुंची। Attendant ने कहा “टैंक खोलिये ” सीट के नीचे चारों ओर देख डाला, कोई switch/ हैंडल नहीं मिला। अन्त में मैंने उसी से मदद मांगी “क्या आप जानते हैं इसमें टैंक कैसे खुलता है? ” उस दिन सही मायने में केमिस्ट्री की लैब याद आ गयी। सब Test fail .एक दो नहीं चार अटेंडेंट आये पर किसी को नहीं पता। फिर किसी अन्य गाडी वाले ने तरीका बताया। टैंक फुल करवाया और दौड़ी। कहाँ तो समय हाथ में लेकर चली थी और कहाँ अब देर हो गयी थी। शहर इतना मुश्किल कि दूरी /दिशा दर्शाने वाले बोर्ड भी कई कई किलोमीटर बाद ही नज़र आ रहे थे। नेविगेशन ने भी साथ नहीं दिया। जानकारों को फ़ोन कर पूछते पूछाते किसी तरह समारोह स्थल तक पहुंची।
रास्ते की सारी बाधाएं अभी तक दिमाग़ में घूम रही थी। कार्यक्रम की समाप्ति पर बिना देर किये पुनः रवाना हो गयी। हालांकि वापसी का रास्ता पूरी तरह से याद नहीं हो पाया था। लौटते वक़्त कुछ लैंडमार्क ध्यान रहे कुछ नहीं ।
अँधेरा होने लगा था। एक जगह पुल की भूलभुलैया थी। समझ नहीं आ रहा था ऊपर चढ़ना है या नीचे से जाना है। राह चलते व्यक्ति से पूछने पर उसने ऊपर से रास्ता बताया। पुल चढ़ी। उतरी। फिर आगे का रास्ता पूछने पर किसी ने कहा आपको तो नीचे से जाना था। मैं असमंजस में। “आस पास और किससे सही जानकारी लूँ? ” जैसे तैसे नीचे से रवाना हुई। कुछ ही दूर चली और किसी अन्य से पूछा तो बताया कि आगे का रास्ता तो ऊपर से है। भयानक रूप से परेशान हो गयी। “ऐसे तो मैं सारी रात पुल के ऊपर चढ़ती रहूंगी और उतरती रहूंगी और तब भी ठिकाना नहीं मिलेगा ” किन्तु दिमाग भी ना जबरदस्त देन है .. दबाव में शानदार काम करता है।
थोड़ी दूर चलने पर एक ऑटो खड़ा दिखा । उसके ड्राइवर को पता बताने पर उसने गंतव्य स्थल तक चलने की हामी भर ली। किराया तय करने के बाद उसने पूछा “सवारी कहाँ है?” मैंने बताया मैं कार चलाते चलाते तुम्हारे ऑटो के पीछे पीछे चलूंगी। वह अचम्भे से बोला “और मैं बिना सवारी ” “हाँ तुम समझ लेना जैसे सवारी बैठी है।” सुबह Technical Navigation फेल हो जाने पर अब Human Navigation की सहायता लेना ही उचित समझा। कुछ ही देर में घर पहुँच गयी।
समझ नहीं आया क्या मानूं “mission completed” या “what a horrible day it was “