बात पते की

पिछले दिनों स्कूल की छुट्टियों के दौरान घर पर काम वाली के साथ उसकी बच्ची भी आने लगी। जब तक उसकी माँ काम करती मैं उसको ड्राइंग बुक , कलर पेंसिल , कॉमिक्स वगैरह दे देती। ताकि बच्ची का मन लगा रहे। उसके जाने के बाद मैं उन्हें संभाल कर रख देती और अगले दिन फिर इसे ही दोहरा देती । कई दिन तक यही नियम बना रहा। एक दिन मैंने गौर किया कि वह बच्ची कॉमिक्स के भीतरी पन्नो में तो कम रूचि रखती है और सीधे ही पृष्ठ कवर पर पहुंच जाती है और उसे ही देखती रहती है। कुछ समझ नहीं आया “अंदर के cartoon characters को छोड़कर ऐसा क्या रुचिकर लगता है इस अंतिम भाग में?”
एक दिन मैंने उसे पूछ ही लिया ” बेटे किताब के इस अंतिम पन्ने पर ऐसा क्या है जो तुम इसे देखती रहती हो ?” जवाब असाधारण था -” सब बच्चे स्कूल की छुट्टियों में कहीं न कहीं जाते हैं। हमारे पास इतने पैसे नहीं है कि हम कहीं घूमने जा सकें तो मैं कॉमिक्स के पीछे लिखे पते को पढ़कर उस शहर की कल्पना कर लेती हूँ और वहां घूम आती हूँ ” मैं गहरे सोच में डूब गयी।