वे घूरते छूते छेड़ते
मैं डरती ठिठकती सहती
नहीं जुटा पाती हिम्मत
कभी पलटवार की
थी आशंका होगा नहीं स्वीकार
समाज को स्त्री का प्रतिकार
अभद्रता उनकी बढ़ती गयी
मेरा डर था जग हंसाई
उसने छेड़ा मैंने क्यों छोड़ा
मेरा मन कचोटता
आँख तो दिखानी थी
आत्मा की सुननी थी
रोकना था आरम्भ से
सुरसा -मुख को बढ़ने से