व्यवहार तुम्हारा रुख़ा सा , मुझको मात्र ‘रूख’ समझकर , रूखापन नहीं थपेड़े हैं , मौसमों में झेले हैं । हरा हूँ मैं भीतर से , घाव नहीं आशा है , दौड़ रहा जीवन मुझमें , फलीभूत उम्मीदें हैं ॥ खड़ा मैं स्थितप्रज्ञ सा , घेरा सुकून का लिए हुए , ठूँठ ना समझो कोई मुझे , गौतम भी यहाँ बुद्ध बने।