आज गुनगुन को परीक्षा की समय सारणी को ध्यान से देखने का कह कर मैं कुछ खो सी गयी। ” क्या हुआ ” उसने पूछा। “कुछ नहीं ” कहकर मैंने बात को टालने की कोशिश की। “आप तो पढ़ाई में अव्वल आती थी ना ” उसके वाक्य में सवाल और जवाब दोनों ही सम्मिलित थे। “हाँ तो ” मैंने कहा। ” तो फिर जब भी परीक्षा की बात आती है तो आप असहज क्यों हो जाती हैं । ” ” तू चुपचाप जो कहा है वह कर ” उसको धमका कर मैं चली आयी। पर दिमाग से बात नहीं निकाल सकी।
शायद पांचवी में थी तब मैं। एक एक अंक के लिए आंसुओं का सैलाब तैयार रहता था। अर्द्धवार्षिक परीक्षाएं चल रही थी। उस दिन सारा समय हिंदी के इम्तिहान के लिए कहावतें , दोहे रटती रही ताकि लेख अच्छा लिख सकूं। बहुत सी जगहों से इकट्ठा की थी सामग्री। “व्याकरण की परीक्षा में अंक कटते ही हैं , पूरे नहीं मिलते” … हर दूसरा व्यक्ति यही कहता मिलता। पर मुझे तो पूरे ही चाहिए थे। सत्र की किताब को छुट्टियों में ही पढ़ डालती थी। और फिर हमारी हिंदी की अध्यापिका भी इतने मनोयोग से पढ़ाती थी कि बातों ही बातों में हम अयोध्या ,वृन्दावन में राम ,कृष्ण ,सीता के साथ हो लेते। वैसे भी विज्ञान के हाइड्रोजन , हीलियम व इतिहास की लड़ाईयों तथा तिथियों के बाद बाग़ –बगीचों , फूलों ,तितलियों वाली हिंदी में मन रमता था।
तैयारी पूरी कर शाम को खाना खाने बैठी थी। घंटी बजी। सोचा पड़ोस वाली आंटी होंगी । उनका दही के लिए जामन मांगने का वही समय था। वही थी। कटोरी आगे करते हुए बोली “और बेटा हो गई विज्ञान की तैयारी ” उनका पुत्र मेरा सहपाठी था। “विज्ञान ??” मैं आश्चर्य से बोली। “हाँ .. मनु तो यही पढ़ रहा है ” वह बोली। मेरे तो होश फाख्ता हो गए। कटोरी वहीँ छोड़ डायरी की और भागी। कांपते हाथों से डायरी खोली। देखा वह सही कह रही थी। अगले दिन विज्ञान का ही पर्चा था। मैं फ़फ़क फ़फ़क कर रोने लगी। सबने दिलासा दिलाई कि तू तो सारा साल मेहनत करती है , डर मत तैयारी हो जाएगी।
जैसे तैसे अगले दिन परीक्षा देकर आयी। शाम को पड़ोस वाली आंटी हंस रही थी कि अब तो तुम्हे कल (हिंदी) के पर्चे की तैयारी की जरूरत नहीं ।