बिट्टू कल से उदास थी। यह सोचकर कि नए शहर में जहाँ उसका कोई दोस्त नहीं है जन्मदिन कैसे मनेगा। ट्रांसफर बच्चों को नए शहर , संस्कृति से वाक़िफ जरूर कराता है पर उन्हें हर बार नए सिरे से शुरुआत करनी पड़ती है -नए दोस्त , नयी स्कूल आदि। बस नए की शुरुआत मुश्किल होती है। शेष सब अच्छा होता है। फिर महानगरों की संस्कृति समझ से परे होती है। सड़कों पर तिल भर की जग़ह नहीं होती है और आसमान छूती मंज़िलों में कभी कभार कोई आदमी दिखाई पड़ता है। लोग कहाँ से आते हैं कहाँ चले जाते हैं एक अजब पहेली है। इमारत की लिफ्ट में कभी कभार कोई आदमी साथ चढ़ा मिलता है। बाकि तो यहाँ बरसों बीत जाते हैं पडोसी का पता नहीं चलता। ऐसे में बिट्टू की उदासी वाज़िब थी।
जन्मदिन वाले दिन बधाई देकर मैंने उसे तैयार होकर बाहर चलने को कह दिया। पर उसकी तैयारी में उत्साह नहीं दिखा। एक ऑटो किया, चालक को पता समझाया और चल दिए । ऑटो के रुकने पर विस्मय भाव के साथ वह उतरी। ” पर पापा यह बिल्डिंग किसी रेस्टोरेंट की तो नहीं है। “बाहर चलने का कहने पर शायद उसने यही समझा था। मैं मुस्कुरा दिया।
सात साल की बच्ची अब इतना अंतर तो कर ही पाती है। मैंने कहा ” हाँ बेटे। यह रेस्टोरेंट नहीं है।” आज हम एक नयी जग़ह आये हैं जहाँ तुम्हे कई नए दोस्त मिलेंगे।
और हम ऑटो वाले का किराया दे सीढ़ियां चढ़ गए। वहाँ के बड़े हॉल में घुसते ही बिट्टू की ख़ुशी देखने लायक थी। हॉल गुब्बारों व रंग बिरंगे रिबन से सजा था। 10 -15 बच्चों ने एक स्वर में जब ” हैप्पी बर्थडे बिट्टू ” गाना शुरू किया तो बिट्टू की ख़ुशी का पारावार नहीं था। इतने सारे बच्चों का साथ पाकर वह खिल उठी। बच्चे थे इसलिए शीघ्र ही घुल मिल गए और खेलने खाने में मस्त हो गए।
कल रात को ही एक दोस्त ने बाल आश्रम में जन्मदिन मनाने का सुझाव दिया था।