सोचा न था जिंदगी यूँ छिन्न भिन्न हो जाएगी। तुम्हारा जाना इतना अचानक हुआ कि कुछ समझ ना पायी। उस दिन भी हमेशा की तरह समय पर आने का कहकर ही निकले थे तुम। पर वापस नहीं आये।
खुद को समेटना आसान काम नहीं फिर यहाँ तो दुनिया ही सिमट गयी।
तुम्हारे होते गलियां , मोहल्ला ,शहर बतियाते से लगते थे। अब सब चुप रहते हैं। तुम्हारी कमी उन्हें भी खलती है। पिछले दस बरस का साथ था।
परिवर्तन कब आसान रहा है जड़ें छूटती सी लगती है। इस शहर की आदत पड़ गयी थी हमें । इतना अकस्मात इसे छोड़ना पड़ेगा सोचा न था। पर अब लगा अधिक दिन यहाँ रही तो अस्त व्यस्त हुई जिंदगी के बारें में सोचते सोचते दिमाग फट जायेगा।
फिर बंधन आसानी से छूटता भी तो नहीं है वह रिश्तों का हो या शहर का । रह रह कर खुद को धोखा देने का मन बना रहता कि शायद सब कुछ सही हो जायेगा। पर वह ना होना था और ना हुआ।
आठ बरस की गुड़िया और मैं। वापस गांव चले आये। यही सोचकर कि अपनों के बीच मानसिक सम्बल तो मिलेगा। अपने तो मिले पर तुम्हारे बिना वह घर नहीं बन सका।
गांव के स्कूल में गुड़िया को भर्ती करवा दिया। शहर जैसा तो नहीं पर ठीक था जो चल रहा था उसे धकेल रही थी बस। कुछ बच्चों को पढ़ा आती। शाम होने से पहले घर? शायद नहीं … चारदीवारी में पहुँच जाती। गुड़िया तब तक अपने चचेरे भाई बहनो के साथ खेल रही होती।
समय अपनी रफ़्तार से चल रहा था। गुड़िया भी बड़ी हो रही थी।
यहाँ गांव में खेत खलिहान के बीच पली बड़ी होने के कारण गुड़िया का खेती की ओर रुझान हो गया। उसने बारहवीं के बाद एग्रीकल्चर साइंस में स्नातक करने की ठान ली। पारम्परिक तो नहीं था पर खैर पढ़ना तो उसको ही था। सोचा कर लेने दो उसको अपने मन की।
कॉलेज से जब भी छुट्टियों में आती तो खेती एक्सपोर्ट इम्पोर्ट ना जाने क्या क्या सपनो की सूची बताती। विचार था कि कुछ पैसे और जुड़ जाये तो ज़मीन खरीद लेंगे चाचा ताऊ के आस पास ही कहीं। आगे ये संभाल लेगी। माँ फ़िर तुम बस आराम करना। मैं बस मुस्कुरा देती।
दिन निकलते गए। फाइनल ईयर के इम्तिहान आज ख़त्म हो गए।
शहर से शाम तक उसे यहाँ पहुँच जाना था। आखिरी बस भी आकर चली गयी। इंतज़ार और आशंकाओं से दिल की धड़कने जैसे फटकर बाहर निकलने को थी। तभी उसका फ़ोन आया ” माँ मैंने अपने एक साथी से शादी कर ली है। गांव में चाचा ताऊ स्वीकार नहीं करेंगे इसलिए मैं नहीं आ रही। “
जिंदगी एक बार फिर मुझे हतप्रभ कर आगे निकल चुकी थी।