मेरा पता

उस दिन   सुबह से ही अच्छा महसूस नहीं हो रहा था । मैं इस घर में तब से काम कर रही थी जब मालिक का बेटा तीन साल का था और अब वह कॉलेज की पढाई पूरी कर चुका था।  पति के हृदयाघात से मौत के बाद अपनी तीन नन्ही बेटियों को माँ के पास छोड़  मैं रोजी रोटी के लिए निकल पड़ी थी। और कोई गुजारे का साधन ही नहीं था।

पहले सोचा था बेटियों को आस पास के किसी पालना घर में भेज दिन में कहीं काम कर लूँगी और फिर शाम को खुद उनकी देखभाल कर लिया करूंगी।

पर पालना घर का शुल्क मेरी सामर्थ्य से परे था। माँ ने ढाढस बंधाया कि “ देख थोड़े दिनों की बात है अभी बच्चियां  छोटी हैं तुम्हारे काम पर जाने के बाद अकेले न रह सकेगी ।  समय एक सा नहीं रहता ये  कुछ बड़ी हो जाएँगी  हो जाएँगी समझदार हो जाएँगी तब तुम उनको साथ रख लेना। । दिल को मजबूत करके उन्हें मेरे पास छोड़ दे।“

 अंततः मैंने अपनी बच्चियों को गांव में अपनी माँ के पास छोड़ने का मानस बनाया। हालांकि यह मेरे लिए बहुत मुश्क़िल निर्णय था क्योंकि मैंने उन्हें अपने से दूर कभी किया ही नहीं था। अब उनसे दूर रहने की सोच मात्र से मैं सिहर उठी । सब मुझे छोड़ छोड़ कर निकले जा रहे थे कोई दुनिया से और कोई घर से।  मैं तो बिलकुल अकेली हो गयी।

बच्चियों  को अपने से अलग करने के नाम से ही कलेजा मुँह को आ जाता। पर फिर किसी तरह दिल पर पत्थर रख उन्हें माँ के साथ भेज दिया।

भेज तो दिया माँ के साथ किन्तु रातों रोती रहती।

फिर एक दिन छुटकी  के साथ खेलने वाली बच्ची ने दरवाज़ा खटखटाया और कहा ” ऑन्टी क्या छुटकी मेरे साथ खेलेगी ” मैंने उसको तो प्यार से कह दिया ” नहीं बेटे। वह नानी के पास गयी है ” बच्ची वापस चली भी गयी किन्तु मेरी रुलाई छुटकी को याद कर कर के ऐसी फूटी की थमी ही नहीं।

सौभाग्य कहूँ या दुर्भाग्य काम भी बच्चे सँभालने का ही मिला। बच्चे के माता पिता दोनों काम पर चले जाते थे। दिन भर उसे खिलाना पिलाना सुलाना उसके इर्द गिर्द ही काम थे।  बच्चे में ही अपने बच्चों का अक्स  ढूंढ़ती थी।

बस फ़र्क इतना ही था अपने बच्चों  के बजाय दूसरों के बच्चे को संभाल रही थी।

मालकिन ने घर आने जाने का झंझट छोड़ वहीँ रहने को कह दिया। इधर मैं भी चारदीवारी को ही घर समझ रही थी। मेरे अलावा यहाँ और था कौन जिससे घर बनता। समय बीतता गया। घर के और कामों की देख रेख मेरे जिम्मे कर दी गयी थी।  

बच्चे बड़े हो रहे थे। लगा बस अब थोड़े ही समय की बात और है।

पर किस्मत  का  इम्तिहान अभी बाकी था। एक दिन सुबह मैं बिस्तर से नीचे पड़ी अचेत मिली। मुझे हॉस्पिटल ले जाया गया। पक्षाघात बताया गया। बरसों सेवा करने वाली को अब सेवा की दरक़ार थी।

पक्षाघात के बाद मालकिन ने मुझे मेरे पते पर पुनः लौटा दिया।