डोर

जिंदगी में कब गलत डोर पकड़ ली या सही छूट गयी कुछ समझ नहीं आ रहा था। और दिनों की तरह ही उस दिन की भी शुरुआत हुई थी। इंसान की नासमझी ­-  किसी दिन की  तो दूर किसी  क्षण तक  की नियति पता नहीं होती  और  फिर भी वह मान कर चलता है कि जैसे अन्य दिन सामान्य रूप से शुरू होकर समाप्त हुए यह भी हो जायेगा। हर दिवस को सामान्य  मानने का उसमें अनुकूलन  हो चुका होता है। या कहे ऐसी कल्पना गढ़ लेता है। क्लोरोफॉर्म लिए हुए सा आधा सोया हुआ सा ही जीता है। इसे नीम बेहोशी कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। यहाँ भी जीवन कुछ ऐसा ही चल रहा था। चल रहा था या यूँ कहें लुढ़क रहा था। पर “सब दिन न होते एक समाना ”  ।

वह दिन कतई सामान्य नहीं था। वज्रपात हो गया था जेल जाने का सुनकर ही। मस्तिष्क ने काम करना बंद कर दिया था अँधेरा सा छा गया था। पराकाष्ठा की हद तक तड़प उठा । दुःख /दर्द जब तीव्रतम होता है तो विचारों का प्रवाह रुक जाता है आदमी विचार शून्य  हो जाता है। जिन्दा था या मृत -स्पष्टतया तो कुछ भी नहीं। फिर भी अस्तित्व का अहसास था।  

साधारण आदमी कोर्ट -कचहरी पुलिस के चक्कर में नहीं पड़ना चाहता। अतिरिक्त दूरी बनाये रखता है। और फिर यहाँ तो सीधे सीधे उन्ही से वास्ता पड़ गया। एक कहावत है कि दुनिया में सबसे दुखियारी व्यक्ति ही कोर्ट और अस्पताल पहुँचते है। मंदिर के आगे से व थाने  के पीछे से निकलने की सलाह बड़े बुजुर्ग दिया करते हैं। पर जब क़िस्मत ही वहां धकेल देती है तो फिर कहावतें और सलाहें दुबकी सी नज़र आती है। और आदमी इन निषिद्ध जगहों पर ही  पड़ा मिलता है।

शहर की नामी गिरामी स्कूल में पढ़ते वक़्त बेहतरीन कॉलेज से पास होते वक़्त कभी एक क्षण के लिए भी नहीं सोचा था कि दुर्दशा की हद में यहाँ तक आना पड़ेगा। अनुशासित छात्रों में गिनती थी। संभ्रांत घरों के बच्चे साथी थे। कहा भी जाता है “man is known by the company he keeps” आप आदमी को पहचानना चाहते हो उसके आस पास के लोगों को देख लो। निर्णय हो जायेगा। MBA कर अच्छी प्राइवेट फर्म में नौकरी कर रहा था।

जब आप दुनिया की नज़रों में कमाने खाने वाले हो जाते हैं तो आपको जिम्मेदारियों का विस्तार करना पड़ता है। या यूँ कहें जब आप स्थिर हो जाते हैं तो आपको अस्थिर करने की मुहीम शुरू की जाती है। वह कम बोलती थी। पर मुझे भी इससे कहाँ गुरेज़ था। मैं खुद भी तो ऐसा ही था। मेरी कंपनी ने मुझे नए शहर भेज दिया। उसकी चुप्पी और बढ़ गयी। पूछा भी। वह टाल गयी। मुझे भी लगा शायद नए शहर में मन ना लगा हो। बाहर ले जाने पर भी वह अन्यमनस्क ही बनी रहती। अंतर्मुखी स्वभाव का व्यक्ति न कुरेदता है न ही कुरेदा जाना पसंद करता है।

ऑफिस मुझे मुहँ अँधेरे ही निकलना पड़ता था। रिश्तों की तरह ही शहरों में दूरियाँ होना अस्वाभाविक बात नहीं। हर रोज की तरह उस दिन भी उसे सोया छोड़कर दरवाज़े को धीरे से बंदकर रवाना हो गया था। आदेश ,उपदेश , फ़ोन , बैठकों में कब दिन बीता पता ही नहीं चला। दफ्तर से रवाना होते वक़्त फ़ोन बजा। जैसे ही उठाने की तैयारी की वह बंद हो गया। मैं भी थोड़ी जल्दी में था। समय पूरा हो जाने के बाद  दफ्तर में  ऐसा लगता है जैसे कहीं अनधिकृत रूप से बैठे हों। फ़ोन दुबारा बजा। मैंने भी सोचा अब चलते चलते ही बात की जाये अन्यथा घर पहुँचने में और देर हो जाएगी। सवेरे से शाम तक समय ,ऊर्जा सब इसी हवन कुंड में होम दी जाती है। अनजान नंबर से कोई कॉल आ रही थी।

फ़ोन उठाया तो उधर से आवाज़ आयी “आप Mr शर्मा  बोल रहे हैं ”  मेरे हाँ भरने पर कहा  “जल्दी घर पहुंचे। आप की पत्नी की हालत बहुत ख़राब है। ” मै सन्न रह गया। अचानक क्या हुआ। सुबह तो सब ठीक ठाक था। मेरे कुछ पूछने से पहले ही अगले ने फ़ोन रख दिया। मैंने भी दुबारा कोशिश कर वक़्त जाया करने के बजाय भागकर टैक्सी को रोका। आधे पौन घंटे में जब घर पहुंचा तो वहां पर पुलिस और आस पड़ोस के लोगो की भीड़ जमा थी।  उन्हें किसी तरह धकेल कर आगे बढ़ा तो उसकी क्षत विक्षत जली हुई देह पड़ी थी। रसोई घर में हादसा हुआ बताया गया। वह कोई बयान नहीं दे पायी थी। और हमेशा के लिए खामोश हो गयी थी। उसकी इस चिर चुप्पी ने ही चीर डाला।

शक की बिला पर पुलिस मुझे पकड़ कर ले गयी। जिंदगी के झंझावातों का सिलसिला यही न रुका था। उधर घरवालों को जब पता चला तो माँ को हृदयाघात हो गया। उम्रदराज़ पिताजी रात रात भर जागकर माँ  की देखभाल करने लगे। माँ से पहले पिताजी चल बसे। मैं तारीख़ दर तारीख़ के भंवर में फँसता चला गया। मैं किसके विरुद्ध और क्यों लड़ रहा था। समझ नहीं आया। जीवन से कुछ और हासिल होना शेष ना था।

मेरा होना ही दोष था। मैंने अपना दोष मान लिया।