क़शमक़श

एक दशक गुज़र गया जब तुम अंतिम बार मिले । कल की ही सी बात लगती है। एहसासों पर समय का जंग नहीं लगता। मेरा प्रथम और तुम्हारा यूनिवर्सिटी का अंतिम वर्ष था। पुस्तकालय में विभिन्न प्रकाशकों की पुस्तकों की प्रदर्शनी लगी थी। यह सच है कि मैंने पहले पहल किताबों से प्रेम किया और वह आज भी सरस बना हुआ है। उस दिन भी परीक्षाओं के बीच मैं प्रदर्शनी में किताबें लेने ही पहुंची थी क्योंकि उसका आयोजन मात्र दो दिन होना था और इम्तिहान अभी लम्बे चलने थे। इम्तिहानों की शायद फ़ितरत भी यही है।

मैं किसी भी हालत में चूकना नहीं चाहती थी वैसे भी छोटे शहरों की विडंबना है कि यहाँ पुस्तक प्रदर्शनियां ना के बराबर लगती है। एक बार चूक जाओ तो फिर अगली का कोई पता नहीं। उस पर  प्रकाशकों की शिकायत रहती है कि पाठक वर्ग नहीं है। अब तो खैर हालात दूसरे हैं। बस अपनी इच्छा की बारहखड़ी बताओ और ऑनलाइन बाज़ार उसे पूरा करने में तुरंत जुट जाता है। हालांकि ऐसी ख़रीददारी में  वो बात नहीं। शब्दों की चाशनी चख चख कर क़िताब ढूंढने का जो मजा किसी प्रदर्शनी या पुस्तकालय में है उसका कोई मुक़ाबला ही नहीं है।

उस दिन मुझे असमंजस में पड़ा देख तुमने पूछा था क्या किसी विशिष्ट लेख़क या क़िताब को ढूंढ रही हैं ???? मैंने अचकचाकर कहा ” नहीं ऐसा तो नहीं है। बस कुछ समझ ही नहीं आ रहा कि इनमें से कौनसी छोडूं। ” तुम मुस्कुराये बिना नहीं रह सके और कहा ” तो सब ले लो ” “वह भी संभव नहीं “मैंने कहा। तुमने कुछ बेहतरीन पुस्तकों से परिचय कराया।

फिर कई बार यूनिवर्सिटी की कैंटीन में अभिवादन हो जाया करता था। तुम प्रतियोगी परीक्षाओं  की तैयारी कर रहे थे और शायद किसी एक में तुम्हारा चयन हो भी चुका था। दिमाग के साथ बातों में भी होशियार थे। कभी एक गायन प्रतियोगिता में गजल गायक जगजीत सिंह ने किसी प्रतिभागी को उसकी गायकी में बस एक ही सुधार की आवश्यकता बताई थी – “यू शुड फॉल इन लव ” . मैं अब अच्छे से  समझ पा रही थी।

उस दिन कैंटीन में लंच करते करते बोले ” you would be a good partner “. “how could you say” मैंने पूछा। बस साथ खाने वालों का ख़्याल रखते देख कर । खाने से याद आया तुम्हारे शहर में जाने पर खाना तुम्हारे घर पर तय होता वह भी मेरी पसंद का। तुम्हारे दोस्त मेरे दोस्त। तुम्हारे गुरु मेरे गुरु । समय तो समय था। सुनहरा हो या श्यामल। बीत जाता है।

किस्मत के खेल से मैं तुम्हारे शहर आगे पढ़ने चली गयी और तुम मेरे शहर में नौकरी के लिए रह गए।  आपस में हम मिलते ना मिलते पर एक दूसरे के घर वालों से अवश्य मिलते। दुआ सलाम कर आते। एक आध दिन की छुट्टी में अपने अपने घर आना संभव ना हो पाता था। अतः एक दूसरे के घर की ओर  रुख कर लिया करते थे। दुनिया की भीड़ में अकेले होने के बोध से बच जाते।

तुम्हारा चयन विदेश सेवा में हो गया।

बदले माहौल में सब बदल गया। आहत हुई। समझदार को इशारा ही काफी होता है। मैंने अपने कदम खींच लिए।

उधर साहित्य में रूचि के कारण इसी में अपना भविष्य बनाने के लिए प्रयासरत थी। मेरा पी एच डी के लिए विदेश की यूनिवर्सिटी में चयन हो गया। और मैं चली आयी।  

संवेदनशीलता मुझे पीछे खींचती ले गयी। और तुम्हारी जिंदगी रफ़्तार पकड़ चुकी थी।

डॉक्टरेट के दौरान मैंने अपने आपको बहुत व्यस्त  कर लिया। सुबह निकलती शाम को जब पहुँचती तो थक कर इतना चूर हो जाती कि कुछ सोचने का मौका ही नहीं मिलता। तुमसे दूरी के बाद मैं भी  कुछ ऐसा ही जीवन चाहती थी।

इसी दौरान क्रोनिए से मुलाकात हुई । नीदरलैंड वासी। मैं मज़ाक में कहती उसके नाम से मुझे “हैंसी क्रोनिए” याद आ जाता है। वह कहता वही समझ लो।

यहाँ  शुक्रवार को ही लोगों को सप्ताहंत  का बुख़ार चढ़ जाता था। शनिवार को  ख़ुमारी परवान पर होती जिसमें  रविवार शाम आते आते उतार आता। शुक्रवार का लंच सब एक साथ बाहर ही करते – गाइड फेलो सब। हाँ  पैसे अपने खाने के खुद ही देने पड़ते। पहले पहल इस रस्म से अनजान जब हर कोई अपनी जेबें टंटोल रहा था खाने का भुगतान यह सोचते हुए  कर दिया कि अगली बार कोई और कर देगा। पर अगली बार भी पाया कि स्तिथि वही है। और भुगतान इस बार भी स्वयं को ही करना है ।  खुद को कहा कि किसी मुग़ालते में ना रहो। दुनिया की तरह व्यावहारिक होना ना मुझे तब आया और ना अब ।

किसी नए शहर को समझते हुए बौरा जाना शायद आम बात है। उस दिन ट्राम पकड़ने में भी  पिछड़ गयी। सब साथी चढ़ गए। बड़ी हास्यास्पद सी हालत थी। एक तो उनकी गोलगोल मुँह ही मुँह में बोली जाने वाली अंग्रेजी , जिसके लिए बेचारे कान हर वक़्त खड़े रहते रहते थक जाते थे ऊपर से फलाना जगह के लिए बस नहीं मेट्रो फलाना जगह के लिए मेट्रो नहीं ट्राम। उलझन में पड़ जाती थी कहाँ के लिए क्या। सीधा सीधा क्यों कुछ नहीं।

उधेड़बुन में ही थी कि क्रोनिए वापस ट्राम से उतरता दिखा। आकर बोला ” what happen ” फिर हम अगले फेरे में गए। जिंदगी की भूलभुलैया वाले फेरे मुझे कभी समझ न आए। मैं दिल को और अधिक तकलीफ़ देना नहीं चाहती थी। मैंने इसके कपाटों पर सदा के लिए ताला ठोक दिया । बार बार टूटने से वे वैसे ही चरमरा गए थे।

हम बाद की हर पसंद में पहली पसंद को ही ढूंढ रहे होते हैं। और जिसकी प्राप्ति की सम्भावना करीब करीब  शून्य होती है। फिर एक दिन तुम्हारा मैसेज आया कि तुम किसी कांफेरेंस में इस शहर आये हुए हो। पर शहर की दूरियां और काम की प्ररिबद्धताओं के चलते हम एक दूसरे को वौइस् मैसेज ही भेजते रह गए और मिलना ना हो पाया। वह शायद किस्मत में ही नहीं था और हम यूं ही कठपुतली बने हुए घूम रहे थे।

मैंने यहाँ  के दूतावास में सांस्कृतिक प्रतिनिधि हेतु आवेदन किया। ख़ुश हुई प्रवेश मिला। पर अनुमति पत्र पर तुम्हारे हस्ताक्षर देखकर ठिठक गयी। पत्र  में दी गयी मियाद में मैंने केंद्र से कोई संपर्क नहीं किया। अंतिम दिन केंद्र से एक कॉल आयी। कहा गया केंद्र प्रमुख आपसे बात करना चाहते हैं – मैं चुपचाप फ़ोन पर बनी रही। तुम थे लाइन पर। बोले – ” देखो तुम्हारा चयन मेरे यहाँ प्रमुख के तौर पर आने के पूर्व हो चुका था। अनुमति पत्र पर मेरे हस्ताक्षर अवश्य हैं। चाहो तो ज्वाइन कर सकती हो। “

विचित्र परिस्थति में बिना अधिक गणना परिगणना के मैंने सहमति दे दी। हमारा आमना सामना कभी न हुआ सिवाय दूतावास  में  प्रथम दिन के। जब उपस्थिति मुझे तुम्हारे चैम्बर में ही देनी थी। एक औपचारिक मुलाक़ात। चाय पीते हुए भी मैं सामान्य नहीं थी। खैर बाद में कभी मिलना नहीं हुआ ना  बुलाया गया ।

दोपहर के खाने के वक़्त केंद्र खाली सा हो जाता। वहां इस दौरान भी लोग किसी न किसी गतिविधि में भाग लेना जारी रखते । कोई दोपहर के खाने के बजाय तैरने चला जाता, कोई स्क्वॉश खेलने। कुलमिलाकर केंद्र   में दोपहर में कोई नहीं रहता। मैं भी आसपास टहलने निकल जाती। किसी शहर को जानने का यह तरीका अच्छा लगा।

इस सब के बावज़ूद मैं उस माहौल में काम नहीं कर पा रही थी। दिखने में सब कुछ सामान्य ही था पर मेरे अंदर की कसमसाहट ने मुझे बेचैन कर रखा था। तुम्हारे पास ना होने पर भी हर कागज में हर  दस्तावेज़ पर तुम्हे ही महसूस करती। भूलना भुलाना तो दूर यहाँ तो हर क्षण तुम्हारी उपस्थिति थी। उसी से असहज़ हो जाती।

मैं सहज होने निकल पड़ी। पर ऐसा हो पाया इसमें आज भी संदेह है।