जिस दिन परीक्षा परिणाम आया उस दिन से ही घर में कोहराम मचा था । अपराध बोध सा हो रहा था । माँ ने बात करना बंद कर दिया। बाबूजी देखते ही मुँह फेर लेते। बाक़ी सदस्य अभी छोटे होने के कारण तटस्थ थे। वरना चौतरफ़ा अंगारे बरस रहे होते। ऐसा माहौल असफ़ल हो जाने पर तो स्वीकार्य होता पर प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण कर लेने पर ऐसा विरोध अचंभित कर देने वाला था । दिक्कत परिणाम नहीं बल्कि परिणाम का भी परिणाम था ।
विरोध का आलम तो ऐसा था जैसे मैं पसंदीदा पेशे के बारें में नहीं बल्कि पसंदीदा जीवन साथी के बारें में बात कर रही थी। खाप पंचायत घर में ही विराजमान हो गयी । अलग़ सोच रखना अपराध कारित करने समान ही मानी जाती है।
परम्परावादी परिवारों में जहाँ चप्पल चूड़ी खरीदने में भी घर का कोई सदस्य विनायक की तरह साथ रहता है वहां पत्रकार बनना तो दूर इसके बारें में सोचना भी गुनाह है। किसी परंपरागत किस्म की पढाई या नौकरी के क्षेत्र तक तो मेरा स्वतंत्र निर्णय स्वीकार हो सकता था किन्तु पत्रकारिता तो स्वछंदता की श्रेणी में था।
मेरे पत्रकार बनने की इच्छा व्यक्त करने पर माँ अवाक् रह गयी और बाबूजी अख़बार को नीचे करते हुए चश्मे के पीछे से झांकते हुए बोले ” क्या कहा ” . मैंने फिर से दोहराना चाहा इस गरज़ से कि शायद ढंग से सुनाई नहीं दिया हो। पर बाबूजी ने वाक्य ” मैं पत्रकार ……. ” पर ही रोक दिया। इससे आगे तो उन्हें सुनना ही गवारा नहीं था ।
मैंने झिड़के जाने की आशंका के साथ धीरे से पूछा “फिर प्रवेश परीक्षा क्यों देने दी थी ” ” वह तो बस अनुभव के लिए थी। और जगह काम आएगा ” मैं हतप्रभ। इम्तिहान देना और बात है और ऐसे मरदाना पेशे में जाना दूसरी बात है। ” बाबूजी पेशे कब से मरदाना जनाना होने लगे ” ” तू चुप कर ” बाबूजी कुछ बोलते उससे पहले ही माँ बोली। “सब देखना पड़ता है। जहाँ अंधेरों का पता ना आधी रात का। कहाँ कहाँ भागती फिरोगी। .यहाँ तो दिन के उजाले में भी इम्तिहान दिलाने तक साथ गए हैं और कह रही हो रात के अंधेरों में अकेली घूमती फिरोगी । ” ” अरे माँ जरूरी थोड़े है की सिर्फ रात की ही पारी होगी दिन की भी हो सकती है। और फिर अन्य किसी नौकरी में वक़्त बेवक़्त जाना पड़ा तो ” मैंने पूछा। ” ज़्यादा मत बोल। कह दिया नहीं तो नहीं ” माँ ने फ़रमान सुना दिया।”और डॉक्टर बनती तो रात को रोगी देखने नहीं जाना पड़ता ?” ” फालतू की बहस ना करो। कह दिया ना की नहीं जाना है। ” माँ बोली। ” पुरातनपंथी न बनो माँ। काम में रुचि महत्वपूर्ण होती है। ” पर माँ टस से मस ना हुई। ” कितना जोख़िम भरा है कुछ पता भी है। रातों रात गायब कर दिया जाता है और फिर कभी पता नहीं चलता।” मेरी जुबान भी फिसल गयी और कह दिया ” आजकल तो पत्रकार महिलाओं के काम पर फिल्मे भी बनने लगी है ” बस यही मेरी चूक थी। जैसे मैंने फिल्मों में काम करने के लिए कह दिया हो। माँ बिफर पड़ी – ” किसी के काम पर एक आध फिल्म क्या बन गयी बस वही सब कुछ अब तुम्हे भी करना है । इधर कई अगुआ भी तो हो गयी जिनका बाद में पता भी ना चला। ”
मैं कसमसा कर रह गयी। और अपने कमरे में लौटकर सुबकने लगी।
” काश इन्हे कोई समझा पाता। हर पेशे की खामियां और खूबियां होती है। “हर पेशा अपने आप में अनूठा और अपनी अहमियत रखने वाला होता है। समाज की मूँझ में सारे तानो बानो की गूंथ होती है। शेक्सपियर का कथन जो हमेशा सिर्फ रटा करते थे अब उसका मर्म समझ आ रहा था कि दुनिया रंगमंच है और हर एक व्यक्ति कलाकार – को आगे बढ़ाते हुए – और उसकी भूमिका निश्चित है। उसे वही निभानी पड़ती है। वह अन्य नहीं हो सकता।
बड़ी मिन्नतों के बाद अंततः माँ बाबूजी मान गए।
कोर्स पूरा होने के साथ ही एक मीडिया हाउस में नौकरी भी मिल गयी।
राजधानी में छात्र संघ चुनाव की रिपोर्टिंग करनी थी। सुबह आठ बजे मतदान प्रारम्भ होना था। शाम की बस पकड़ मुँह अँधेरे पहुँच जाने का निश्चय किया। यात्रा के दौरान नींद आने का प्रयास ही करती रहती है पूर्णतया आती नहीं है। फिर भी चूक ना हो जाए इसलिए कंडक्टर को भी उतरने की जग़ह के बारे में बता दिया था। इफको चौक गया ….. फ़िर कापसहेड़ा ….. ठण्ड और थकान के मारे नींद के झोंके आ जा रहे थे। सोते हुए सज़ग रहने की जब चेष्टा की जाती है बड़ी अज़ीब सी स्थिति उत्पन्न हो जाती है। दिमाग़ इस मुग़ालते में रहता है मानो उसे सब पता चल रहा है जबकि आधे समय वह सोया रहता है। खैर कंडक्टर की टेर से जाग खुली। “धौला कुआँ धोला कुआँ “. मैं अचकचा कर उठी। अधखुली आँखों को पूरा खोल खिड़की से बाहर देखने की कोशिश करते हुए। पर बस की रफ़्तार इतनी तेज़ थी कि बाहर की स्तिथि कुछ स्पष्ट नहीं हो पायी। इतने में फ़िर कंडक्टर चिल्लाया “धौला कुआँ धोला कुआँ “. लोग अपनी बेचैनी का हस्तांतरण दूसरों में कर देते हैं। मैंने फ़टाफ़ट पैरों में जूते डाले और थैला उठाया। ज्यादा कुछ मेरे पास था नहीं।
हिचकोले खाती बस का गलियारा पार कर धड़ाम से बस के दरवाज़े से नीचे लगभग कूदना पड़ा। बाहर उतर कर लगा काफ़ी बदलाव हुआ है। साल भर पहले ही तो आयी थी। “धोला कुआँ” लिखा बोर्ड भी हटा दिया लगता है। जग़ह भी अधिक खुली अधिक चौड़ी लगी। लेकिन कहीं तो कुछ लिखा होना चाहिए? ये कौनसी जग़ह है ? अब मैं लेने आने वाले ड्राइवर को कैसे समझाऊँ कि मैं कहाँ खड़ी हूँ। मैं इधर उधर किसी साइन बोर्ड / milestone के लिए देखने लगी। पर कुछ नहीं दिखा। विचित्र सी स्तिथि थी।
इतने में फ़ोन बजा। ” कहाँ हैं आप।” मैंने कहा धौला कुआँ बस स्टैंड पर। ड्राइवर ने कहा ” वहां तो मैं खड़ा हूँ। आसपास देख कर बताईये कहीं कुछ लिखा हो तो।” कुछ आशंका हुई। कहाँ उतार गया कंडक्टर। आस पास कोई दिखाई भी नहीं दे रहा था। सर्दियों की भोर में किसी के सड़क पर होने की उम्मीद करना भी बेमानी है।
“कुछ पता नहीं चल रहा है बस केवल लम्बी सड़क ही सड़क दिखाई दे रही है।” मैंने वाक्य समाप्त किया ही था कि एक कार सररररररर्र करती पास से निकल गयी। कुछ समझ पाती इतने में वह पुनः लौटती सी दिखाई दी। मैं बचने के लिए पीछे की ओर दौड़ी। उधर ड्राइवर ने परिस्थति को भांपते हुए कहा “फ़ोन चालू रखना , किसी भी हालत में बंद मत करना , और कोशिश कीजिये आस पास का कुछ भी बता पाओ मैं पहुँच जाऊँगा। ” पास ही बने पुल पर दो पुलिस वाले दिखाई दिए। पर पुल की ऊंचाई इतनी अधिक थी कि अगर मैं यहाँ से चिल्लाऊँ तब भी उन्हें शायद ही सुनाई दे। दिल इतना जोर से धड़क रहा था जैसे फट कर बाहर आ जायेगा।
बदहवास सी इधर उधर देखने लगी तभी बहुत दूर कोई साइन बोर्ड नज़र आया।”दिखा ……. एक साइन बोर्ड ” मैं अटकती सी बोली। “किसी भी तरह जल्द से जल्द उसे पढ़ने की कोशिश कीजिये । डरिये मत । मै शायद बहुत नज़दीक ही हूँ। मैं पहुँच जाऊँगा। “ड्राइवर ने हिम्मत बढ़ाने की गरज से कहा। मैं दौड़ कर सड़क किनारे प्लेटफार्म पर चढ़ गयी और दूर दिखाई देने वाले साइन बोर्ड की तरफ भागने लगी। हाँफते हाँफते मैं उसे किसी तरह पढ़कर बता पायी। उस कार के मेरे नज़दीक पहुँचने से पहले ही ड्राइवर मुझ तक पहुँच गया और हम वहां से रवाना हो लिए।
आँख बंद करते ही माँ बाबूजी के चेहरे सामने आ गए।