कल शाम से ही रह रह कर बर्फ़बारी हो रही थी। इंच भर शरीर का हिस्सा बाहर रह जाने पर चीर कर रख देने वाली हवाओँ के साथ । अब तक 2 -2. 5 फ़ीट मोटी परत जम चुकी थी। मौसम विभाग ने भी अगले कई दिनों तक कोई राहत नहीं मिलने की चेतावनी दी हैं। यह मौसम नया तो नहीं पर भयानक अवश्य था। चारों और सफेदी ही सफेदी। अवसाद को आमंत्रित करती सी। सब कुछ जैसे ठहर सा गया । चिल्लई कलां जैसे चरम पर हो ।
सैलानी भी पता नहीं क्या ढूंढने आते हैं। शायद यहाँ का रोमांच । पर वह तो रोजमर्रा की जिंदगी में वैसे ही बहुत है। तिस पर वह भी कभी कभी महगा पड़ जाता है। गए साल तो एक सैलानी की नसों में ही खून जम गया था। आज भी किसी के सांस नहीं ले पाने की ही शिकायत आ रही है। मुहँ अँधेरे ही फ़ोन बज चुका था। समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे क्या करुँ। क़मर तक बर्फ़ पड़ी है। किन्तु रोगी को अपने हालात के साथ तो नहीं छोड़ सकती इसी की तो शपथ लेते हैं । फिर एक बार हामी भर लेने पर स्वयं को उससे बंधा हुआ पाती हूँ। संवेदनाओं के संसार की हक़ीक़त यही है।
इस सफेदी को चीर कर पहुंचना मेरे लिए भी कहाँ आसान था । पहले driveway को दम लगाकर साफ़ किया अन्यथा गाड़ी निकालना भी मुश्किल था। गाड़ी में बैठी ही थी कि याद आया बर्फ़ हटाकर नमक छिड़कना भूल गयी। कोई फिसल जाएगा। गाड़ी चलाने की तैयारी भी किसी स्पेसक्राफ्ट चलाने से कम नहीं होती। शीशे , हैंड ब्रेक , सीट बेल्ट ….. किसी को लगाकर किसी को हटाकर। और फिर उतरना तो चाँद से उतरने के समान भारी हो जाता है। खैर गाड़ी से पुनः उतरी।
तभी कुछ सुनाई दिया । समझ नहीं आया आवाज़ किधर से आयी । टोपे से ढके कान से आवाज़ का अंदाज लगाना मुश्किल हो जाता है। टोपे को उतार कर ध्यान से सुनने की कोशिश की। अब कोई आवाज़ ना थी। ” मेरा वहम होगा। इस मौसम में कोई बिरला ही बाहर हो सकता है ” सोचकर वापस गाड़ी की ओर क़दम बढ़ाये। बैठने को हुई कि फिर कुछ आवाज़ आयी। उसकी दिशा दशा कुछ तय नहीं कर पा रही थी। टोपे को सर से झटकते हुए अलग़ किया। इस बार अधिक सतर्क थी।
स्पष्ट अब भी ना थी । क्या कोई पिल्ला दब गया है बर्फ़ के नीचे। इधर उधर देखा। कुछ नज़र नहीं आया। “खुद पर झल्लाहट आयी। पहले ही देर हो रही है और उस पर कभी गाड़ी में बैठना कभी उतरना।”
फ़ोन फ़िर घनघनाया।
“आज कोई काम नहीं होना है ” तभी “oh my gosh …… यह क्या ???”
दूर नुक्कड़ पर सात आठ साल की बच्ची एक आदमी के चंगुल से छूटने का प्रयास कर रही थी। वह उसके मुँह को बंद करने की कोशिश कर रहा था। रुकती दबती आवाज़ उसी बच्ची की थी। देखते ही देखते बच्ची ने आदमी को काट खाया और बेतहाशा भागने लगी।
शरीर के साथ दिमाग भी सुन्न हो गया। फिर मैं भी उसी ओर दौड़ी । तब तक आदमी बिलबिलाते हुए दूसरी तरफ़ भाग छूटा।
अब तक अकेले ही जूझ रही उस बहादुर की मुझे देखते ही रुलाई फूट पड़ी।
पता चला आज बहुत दिनों बाद स्कूल खुले थे। बर्फ़बारी और लम्बे अवकाश के कारण स्कूल के आस पास आवाजाही कम थी। कुछ अलग थलग से पड़े रास्ते पर उस आदमी ने बच्ची को अकेला देखकर साइकिल पर उठाकर ले जाने की कोशिश की। बच्ची ने तत्परता दिखाते हुए साइकिल पर से छलांग लगा दी। और जैसे ही वह पीछे दौड़ बच्ची का मुँह बंद करने का प्रयास कर रहा था बच्ची ने उसे काट खाया। और तभी शायद मैं भी उन्हें दिख गयी। वह भाग छूटा और बच्ची मेरे पास दौड़ी।
बच्ची के सामान्य हो जाने पर उसे उसके घर छोड़ अस्पताल के लिए आगे बढ़ी। वहां भी किसी की जिंदगी से जद्दोजहद जारी है।