“अरे छोटूराम तुमने काम तो बहुत बड़े बड़े कर रखे हैं।” उसके पास पहचान साबित करने वाले बीसियों प्रमाण देखकर मैंने कहा। ” इतने पहचान पत्र तो मेरे पास भी नहीं मिलेंगे।” “अरे दीदी किसी ने मदद कर दी तो बन गए । ” छोटूराम दिव्यांग को दी जाने वाली मासिक वृत्ति के लिए आवेदन पत्र भरवाने आया था। उसके पास पहचान पत्रों का जखीरा देख जैसे अध्यापक को छात्र में प्रतिभा नज़र आती है वैसे ही मुझे उसमे समझदारी नज़र आयी। लगा जिंदगी अगर इसके साथ थोड़ी दयालु होती तो शायद इसका वर्तमान कुछ और होता।
खैर उसके आवेदन पत्र के भविष्य को लेकर मैं कोई अधिक आशान्वित नहीं थी किन्तु उसका मन रखने के लिए मैंने उसकी तरफ से भर दिया। अधिंकाशतः ऐसे आवेदनों की नियति फाइलों में बस नत्थी होकर रह जाना होता है।
आवेदन पत्र लेकर वह ख़ुशी ख़ुशी चला गया। मैं बहुत देर तक उसके बारें में सोचती रही। कितना मुश्किल रहा होगा उसके लिए तरह तरह के पहचान पत्र बनवाना जहाँ स्वस्थ व्यक्ति की जूतियां घिस जाती है और वहां वह तो पैरों को सिर्फ घसीट ही सकता है।
भागती दौड़ती ज़िंदगी में वह बात भी मेरे दिमाग़ से हवा हो गयी।
लम्बे समय के बाद एक दिन फिर छोटूराम प्रकट हुआ। उसे देखते ही मुझे उसकी वृत्ति का स्मरण हो आया। पूछने पर उसने बताया ” दीदी कई दिन तो मैंने उस दफ़्तर के चक्कर काटे फिर थक हार कर मैंने वहां जाना बंद कर दिया और उम्मीद छोड़ दी । फ़िर एक दिन कुछ लोग ढूंढते ढाँढते मेरे ठिकाने पर पहुंचे और मूल पहचान पत्रों के साथ अगले दिन दफ़्तर आने को कहा। दूसरे दिन मेरे वहां जाने पर उन्होंने कागज़ो की छान बीन कर मुझे स्वीकृति थमा दी। मेरी तो जैसे लॉटरी लग गयी। अब हर महीने स्वतः ही खाते में पैसा वजीफे के समान आ जाता है। ” मेरे ख़ुशी मिश्रित आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। पर यह हुआ कैसे।
पता चला कोई माननीय आने वाले थे और आनन फानन में आंकड़ों का शून्य भरने के लिए छोटूराम के आवेदन को स्वीकृति दे दी गयी।