कामकाज़ी

घर व बाहर  के पलड़ों को संतुलित करते करते अब थकान मह्सूस होने लगी थी। सुबह घर का काम समेट कर जैसे तैसे ऑफिस पहुंचती। ऑफिस में घर की चिंता सताती। “बेटा स्कूल से घर आ गया होगा। खाना ढंग से शायद ही खाया होगा। घर पहुंचूंगी तब तक थक हार कर सोने की तैयारी कर रहा होगा।  क्या करूँ ? ढंग से देखभाल भी नहीं कर पा रही हूँ। अभी किशोर है, सही राह पकड़ना जरूरी है  फिर भविष्य की चिंता नहीं रहेगी।” और  इसी उधेड़ बुन में दिन पूरा हो जाता।

“पड़ोसिन से पता करूँ क्या ? उन्होंने भी तो अपना बेटा बोर्डिंग में भेजा हुआ है ? जान पहचान का है तो उसके साथ से इसका भी वहां मन आसानी से लग जायेगा। दूसरा वहां हर समय निगरानी में रहेगा तो राह भटकने की गुंजाईश नहीं रहेगी। यहाँ मैं तो ऑफिस आ जाती हूँ और ये अस्पताल चले जाते हैं , फिर पीछे से चाहे कुछ भी करे। हालांकि अभी ऐसा नहीं है। पर ठीक है न समय रहते निर्णय ले लिया जाये। आज इनसे बात करती हूँ।”

 इस विचार के साथ ही बहुत  हल्का महसूस कर रही थी।

थोड़ी ना नुकूर के साथ बाप बेटे दोनों मान गए ।

उसका बोर्डिंग स्कूल नामी गिरामी संस्थानों में से एक था। देखभाल न कर पाने का अपराध बोध अब कचोटता नहीं था। रोज़ शाम को वीडियो कॉल कर लेता ।  कभी कभार ही वह घर आ पाता । इधर मैं  ऑफिस के काम में भी ज्यादा ध्यान देने लगी , प्रशंसा  भी मिलने लगी। उस दिन भी घर आये एक मेहमान ने  बेटे से कहा “कितना अच्छा लगता होगा न तुम्हें इतने क़ाबिल माता पिता हैं ।”   ” मुझे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि जब मुझे उनकी जरूरत होती है वे मेरे पास नहीं होते।”

मैं जड़वत।