जूते

विचार मात्र से ही मैं मुस्काया। मैंने अपनी ख़ुशी का राज ढूंढ लिया। जूतों में।हाँ जूतों में। बचपन में सुनी कहानियों में अक्सर राजा की जान किसी कबूतर अथवा तोते में हुआ करती थी। इधर तोते /कबूतर की गर्दन मरोड़ी जाती उधर राजाजी पूरे हो जाते। बहरहाल जूते खरीदने एक दुकान पहुंचा। दुकानदार ने तरह तरह के जूते दिखाए। “बाबूजी ये देखिये इन जूतों से तो आपके पर लग जायेंगे।” “लो ये भी जले पर नमक छिड़कने से बाज नहीं आ रहा है। ” मैं मन ही मन बुदबुदाया। “नहीं ये नहीं चाहिए। कोई और दिखाओ थोड़े भारी भरकम से।” मेरी मांग से दुकानदार के माथे पर सलवटें पड़ गयी। “पर बाबूजी आजकल भारी जूते कोई नहीं पहनता। out of fashion हो चुके हैं। देखिये मैं आपको कुछ और दिखता हूँ। ये देखिये इनको पहनने के बाद आपको लगेगा ही नहीं कि आपने पैरों में कुछ पहना है। ” मेरी त्योरियां चढ़ गयी ” तुम्हें मैं जो कह रहा हूँ वही दिखाओ। तुम्हारे पास भारी जूतें हैं तो बात करो अन्यथा मैं आगे बढ़ता हूँ। ” दुकानदार का उत्साह जाता रहा। और धीमे से पूछा “क्या पैर छोटे बड़े हैं?” मेरा पारा चढ़ने लगा ” अरे भाई बिना छोटे बड़े पैर हुए क्या मैं भारी जूते नहीं पहन सकता ?” “ज़रूर पहन सकते हैं” कहते हुए मेरे सिरफिरेपन को मेरे साथ ही छोड़ते हुए ,बिना समय गवाए दुकानदार ने एक कोने से धूल से सना एक डब्बा निकाला। “ये देखिये बाबूजी आपकी पसंद के। चलने पर लगेगा जैसे किसी ने पैरों में बेड़ियाँ बाँध दी हो ” और प्रतिक्रिया हेतु मेरा मुँह ताकने लगा ( ज्यादा गौर तो नहीं फ़रमाया पर शायद वह धीमे धीमे हंस रहा था) जूतों का नाप सही था और कदम उठाने में भी मशक्कत भरे थे। ” जैसे चाहे थे वैसे आखिर मिल ही गए “. दाम चुकाने बाद दुकानदार से रहा नहीं गया बोला ” बाबूजी अब तो बता दीजिये इन भारी जूतों का राज “. “देख भैया -हलके फूल से जूतों में भाग भाग कर काम करता हूँ , फिर मेरी औरों से आशाएं भी उसी रफ़्तार से बढ़ जाती है , आशाओं पर वे खरे नहीं उतरते और मेरे हाथ निराशा लगती है। अब न बांस होगा न बजेगी बांसूरी। भारी जूतों में ना मैं भाग भाग कर काम कर पाऊँगा ना मेरी किसी से आशाएं होंगी न मैं निराश होऊंगा। ” कहते हुए मैं चल पड़ा।