जब नौकरी का बुलावा आया तो ख़ुशी का पारावार ही नहीं था। पाँव जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। सोच में पड़ गया किस किस को बताऊँ । लम्बे इंतज़ार और बीसियों जगह ठुकराए जाने के बाद किसी ने हाँ भरी थी। और मुझे तो बस काम चाहिए था। बिना काम जिंदगी ही बेमानी लगने लग गयी थी। लगा कोई सूत्र तो मिले जिसको पकड़ कर आगे बढ़ा जा सके। उबाऊपन का बोझ इतना था कि साक्षात्कार में भी कह आया था काम मेरा तनख्वाह आपकी।
घर छोड़कर शहर जाना था। पर मैं इसके लिए मानसिक तौर पर तैयार था। ज़ेहन में था कि किसी शहर को अपना बनाने में कुछ ही समय लगता है। इंसान ही तो होंगे ,निभाया जा सकता है। फिर नए शहर का रोमांच ही अलग था। नए लोग नया माहौल सब कुछ नया नया। आस पास की हर चीज में जैसे ऊर्जा भर गयी हो। उत्साह इतना था कि मिलने वाले भी कहने लगे कि तुम बड़े सेल्फ मोटिवेटेड रहते हो।
पर जितना उत्साह नौकरी की शुरुआत में था उतना ठहराव उसका रहा नहीं। कभी कभी तो लगता था कि नौकरी में भी एक तरह का रिश्ता निभाए जा रहा हूँ। ये दीगर बात है कि इसमें एक पक्ष मूर्त रूप होता है और दूसरा अमूर्त। जहाँ इंसानी रिश्तों में हमारा साबिक़ा मूर्त रूप से पड़ता है नौकरी में दूसरा पक्ष अमूर्त / अदृश्य होकर अपनी भूमिका निभाता है।
संदेहास्पद लोग आते जाते रहते थे। कभी कभी तो किसी का चेहरा अखबार में मोस्ट वांटेड या हिस्ट्रीशीटर की श्रेणी में देखा हुआ सा लगता था। समझ में नहीं आ रहा था कहाँ फंस गया हूँ । जब तक व्यवहार न हो संबंधों का पता नहीं चलता । हालाँकि मेरी भागीदारी तो कागजों पर टंकण तक सीमित थी पर अब असहज महसूस कर रहा था।
बेमेल संबंधों की तरह काम को ढोता जा रहा था । जिसे ना निभाते बन रहा था ना छोड़ते। बहुत बार सोचा इसे छोड़ दूँ फिर दिमाग में आता दूसरे का क्या भरोसा है नहीं मिला तो फ़ाकाकशी की नौबत आ जाएगी। दुबारा शून्य से शुरुआत करना नहीं चाहता था। पर बारम्बार माहौल की गर्द दम घोटती थी।
कभी मोहन राकेश की “आधे -अधूरे ” पढ़ी थी। पात्रों की घुटन भयानक रूप से महसूस की । इस नौकरी से रिश्ता कुछ कुछ ऐसा ही था। सब कुछ निष्प्राण सा। आगे अन्धकार था पीछे लौटने की हिम्मत जुटा नहीं पा रहा था ।
अंततः निश्चय किया। जिंदगी में और काश बढ़ाना नहीं चाहता था। ना मिले कोई और। हर क्षण पश्चाताप से तो बच जाऊँगा कि मैं किसके लिए काम कर रहा हूँ। फिर किस्मत को किसने खोल कर देखा है क्या पता और अच्छी मिल भी जाये। इसी विचार के साथ फ़टाफ़ट इस्तीफ़ा लिख डाला। और आज़ादी के सपने देखने लगा।
कुछ रोज बाद। वाक़ई मेरे शब्द मुझे ही चिढ़ा रहे थे क़िस्मत को किसी ने खोल कर नहीं देखा। मेरा इस्तीफ़ा हमेशा के लिए नामंजूर हो गया। और मैं ताउम्र का बंदी।