घर में रखी पुरानी चीज़ों को खंगालते वक़्त स्कूल के ज़माने की कुछ अंकतालिकाएं सामने आ गयी । उनके साथ ही बीते ज़माने से एक बार फ़िर मिल आई। वैसे तो चीज़ों को अनावश्यक रूप से इकट्ठा करने की तरफ़दार नहीं रही पर पुरानी फोटो , स्कूल कॉलेज में बनाई कुछ ड्रॉइंग्स आदि आज भी सहेज़ कर रखी है। उन्हें याद स्वरुप रखने की हिमायती हूँ। यही कुछ चीज़ें हैं जो समय का चक्का पीछे घुमा देने में सक्षम है। छुटपन में किसी टीवी सीरियल में “टाइम मशीन” को देखा था जिसमे कुछ लोग प्रवेश कर अपने भूतकाल में चले जाते थे। पुराना सामान भी मुझे उस “टाइम मशीन ” सरीख़ा सा लगता है।
अंकतालिकाएं सामने आने पर याद आया कटे हुए एक एक अंक ने कितना रुलाया था और अब मिले हुए अंकों को देखकर हंसी आती है सब के सब अब यादों की टोकरी में। भारी भरकम अंकों वाली मार्कशीट नक़ली सी लगी।
आज बापू पर सोपान जोशी द्वारा लिखित किताब ” एक था मोहन ” पढ़ रही थी। हालाँकि पुस्तक किशोरों के ज्ञानवर्धन को लक्ष्य रखकर लिखी गयी है पर सोचा जब जानने की इच्छा हो तो उम्र को भुला देना ही अच्छा होगा। पुस्तक अनुसार मोहनदास करमचंद गाँधी को भी 58 फ़ीसदी नंबर ही मिले थे। और फिर भी बराक ओबामा आज भी कहते हैं कि ” भारत के प्रति मेरे आकर्षण की मुख्य वज़ह महात्मा गाँधी है। ” साठ फीसदी के आस पास , दो कम या दो ज्यादा, की अंक प्राप्ति पर्याप्त प्रतीत होती नज़र आयी। जिसमे सुधार कहें या प्रगति हमेशा गुंजाईश बनी रहती है।
नम्बरो का इतिहास खंगालते वक़्त याद आया विद्यार्थी जीवन में गणित का विषय सर्कस के शेर जैसा होता है जो काबू में आ भी सकता है और नहीं भी । काबू में ना आने की व्यथा सिर्फ विद्यार्थी ही बयां कर सकता है। धूमिल सी याद है कि कक्षा 3 में किसी परख़ में ख़ाकसार को गणित में तीन नंबर मिले और साथ में एक चपत भी। शायद उस चपत का ही कमाल था कि तीन अंकों की वह छवि आज भी पूर्णतः धूल धूसरित नहीं हुई है। पर नीचे से अव्वल रहो या ऊपर से कम्बख्त अंक डांट या उलाहना का ही सबब बने हैं। दसवीं में 99 अंक मिलने पर भी गुरूजी नाराज़ हो गए , बोले “एक नंबर कैसे कटा ” .वे भी शायद निनान्ये के फेर में थे।
उधर स्कूल वाले जब हर साल ग्रुप फोटो खींचकर शुल्क की पर्ची थमा देते थे तब अदा किये गए शुल्क के बदले में प्राप्त तस्वीर की कीमत से वाक़िफ़ न थे जिसमे वक़्त को क़ैद कर थमाया जाता था। और सिर्फ भुनभुना कर रह जाते थे। उस उम्र में साल दर साल लिए जाने वाले ग्रुप फ़ोटो का महत्व समझ से बाहर था।
मह्सूस हुआ सुकून केवल आगे बढ़ने में ही नहीं कभी कभी पीछे लौटने में भी है।