खेल खेल में

जिंदगी की रफ़्तार के बीच गाहे बेगाहे बचपन के खेल याद आ जाते हैं। आज इच्छा हुई पुराने खेलों को पुनः यादों में खेल लेने की। उनमे से कुछ अभी भी हिप्पोकैम्पस के पटल पर – धूल जमे से पड़े हैं। कुछ की शायद वहां से सफाई हो गयी है। जो खेल सबसे पहले याद आता है वह था -छुपम  छुपाई। शायद सर्व मान्य सर्व प्रथम। सभी ने कभी न कभी यह खेल  बचपन में खेला होगा ।  काफ़ी रोमांचकारी लगता था। जिसमें दोनों पक्षों की अग्नि परीक्षा हो जाती थी -ढूंढ़ने वाले और छुपने वाले की।

सबसे पहले दांव में हारने वाले को अन्य साथियों को ढूंढने की शुरुआत करनी पड़ती थी। शुरुआती हार से तिलमिलाया वह खिलाडी जल्द से जल्द खेल में वापसी के लिए प्रयत्न करता और दूसरों को खोज निकालने की फ़िराक़ में रहता। अंग्रेजी के शब्द रेसिलिएंस का इससे बेहतर उदाहरण बचपन में नहीं मिल सकता।

उधर छुपे हुए खिलाडियों की धड़कने इस सोच मात्र से ही बढ़ जाती कि कहीं वह ढूंढ नहीं लिया जाये। छुपी हुई अवस्था में खुद को बढ़ती धड़कनो के साथ छुपाये रखना ऐसा होता था मानों  कष्ट में  संयम की परीक्षा ली जा रही है।

खेल के अंत तक जद्दोजहद चलती रहती -एक हार के खोल को फेँकने के लिए आतुर दूसरे किसी कोने में अनंत काल तक बर्फानी बाबा की सी जमी हुई अवस्था में पाया जाता।

और खेल का अंत??? थकने पर या कानूनी भाषा में विवाद्यकों के उत्पन्न होने पर हो जाता।

दूसरा खेल दौड़। ऐसा लगता है जिंदगी की दौड़ जो इस खेल के साथ शुरू होती है कभी ख़त्म ही नहीं होती। समस्त  क्षमताओं को, चाहे वे आकार -प्रकार में कितनी ही नन्ही थी , समेटकर पूरे दम ख़म के साथ आँखे मीचकर दौड़ते थे। और खोलने पर पता चलता बाज़ी कोई और मार ले गया है। इसे क्या कहें -अँधेरे में रहना या अपने में ही डूब कर लुटिया डूबा लेना।

सुना है कुछ बच्चों को तो यहाँ पर भी कम्बख़्त अंग्रेज़ी ने मात दिलाई – बच्चों  को दौड़ में  झूझते देख माता पिता के उत्साह बढ़ाने की गरज़ से ” come on ” “come on ” कहने पर बेचारे  बच्चे माता पिता  के पास लौट आये। विडंबना है कि हम भारतीयों को मात्र अंग्रेजों ने ही नहीं अंग्रेजी ने भी कष्ट में डाला है।

तीसरा पकड़म पकड़ाई जिसे आजकल बच्चे “टैग ” कहकर खेलते हैं।पक्षपात की घूंटी तो  इस खेल के साथ ही ले ली थी। जैसे ही कोई अपना गिरफ़्त में आने को होता  उसे छोड़ देते, उसे भाग जाने देते। फिर चाहे दूसरे कितने ही भेदभाव करने के आरोप क्यों न लगाए।और जिसे दबोचना होता उसे पूरे दम ख़म के साथ दबोच कर ही दम भरते थे।

पहल दूज। सम्पति एकत्र व विस्तार करने की फाइनेंसियल एजुकेशन का बीज़ वहीँ रोपित हो गया था। खेल के घरों में से 80 प्रतिशत एक के पास और 20 प्रतिशत शेष  के पास  इकट्ठा  होने पर असमानताओं वाले समाज की तरह खेल वहां भी नहीं जम पाता । एक के सिकंदर /नेपोलियन बन जाने के बाद खेल ख़त्म हो जाता था। उधर सिकंदर /नेपोलियन को भी घरों को जीतते जीतते ऊब आने लगती थी कि वह इतनी सम्पति का क्या  करे। थक हारकर जीतने वाला वापिस अपनी सारी सम्पति / घरों का त्याग करता तभी खेल पुनः शुरू हो पाता। 

सतोलिया -जिसे रग्बी की तरह ख़तरनाक़ समझ अभिभावकों ने कम ही खेलने दिया पर इसमें ख़तरे  के साथ साथ फुर्ती की भी पराकाष्ठा थी। एक के ऊपर एक पत्थर जचाते वक़्त जिसे अंग्रेजी में “Hand Eye coordination “कहते हैं , की जबरदस्त आवश्यकता होती थी। आसान तो कतई नहीं था ऊपर से चोटग्रस्त होने की सम्भावना ने इसे करेला और नीम चढ़ा की श्रेणी में ड़ाल दिया।

Last but not least के खेल वर्ग में रस्सी कूद को डाला जा सकता है जहाँ अन्य साथियों का साथ मिल जाने पर कूद के साथ करतब भी दिखा देते अन्यथा “एकला चलो रे” की नीति पर अकेले ही खेल जमा लेते।

 “जी लिए एक बार फिर बचपन और खेल याद कर  “