आज फिर घर में युद्ध का बिगुल बज चुका था। लता ने अपना घर बनाने की मांग एक बार पुनः कर डाली। अपनी जग़ह वह सही हो सकती है। बार बार किराये के घर बदलने , तरह तरह के मकान मालिकों के फ़रमान मानते मानते वह आज़िज़ आ चुकी थी। ” कितने रिश्तेदारों के बंगले बन चुके हैं और हम अभी तक किराये के मकानों में सामान इधर से उधर पटक रहे हैं। आज तो भाभी ने भी ताना मार दिया बहन जी अब तो अपनी छत डाल लो फिर चाहे एक ही कमरा क्यों न हो ” लता भरी बैठी थी।
दफ्तर में सुबह एक व्यक्ति ने सामने रखी फाइल के नीचे 100 का नोट सरका दिया था। मैं हक्का बक्का रह गया पसीने छूट गए। वह यह क्या कर रहा है। मेरी स्थिति को भांप कर विद्रूप सी हंसी हँसता वह बोला ” कुछ नहीं बस बच्चों की मिठाई के लिए है। ” गुस्सा आया पर मन में ही दबा लिया ” मेरे बच्चों का ख़्याल तुम्हे किसने सौंपा है ” तमतमाकर उसे कहा “नोट उठाकर तुरंत रवाना हो जाओ अन्यथा तुम्हारी अभी शिकायत करता हूँ। ” हक्का बक्का सा वह दफ़ा हो गया।
और फिर उस दिन तो मेरी हवाईआं ही उड़ गयी थी जब उधार दी हुई क़िताब साथी ने अच्छे से लपेट कर मेरी दराज़ में रख दी थी। होश फ़ाख़्ता हो गए थे। पूछताछ पर पता चला मेरी अनुपस्थति में साथी क़िताब लौटाने आया था और यहाँ रख गया।
घर पर चल रहे शीतयुद्ध से कई दिनों तक ऑफिस में उधेड़बुन में ही रहा। क्या करूँ क्या ना करूँ। हाथों में तो सदा से ही तंगी लिखी है। छप्पर फाड़ मिलने की ऐसी कोई आशा भी नहीं है। दफ़्तर में भी मन नहीं लग रहा था। बस यंत्रवत काम कर रहा था। सूचना लेने आये हुए व्यक्ति को उसकी प्रति दे दी। फाइल यथास्थान रखने के लिए पीछे की दीवार की तरफ मुड़ा ही था कि उस आदमी ने अपनी ज़ेब से बटुआ निकाल कर 100 रूपए का नोट आगे कर दिया। मैंने मुड़े मुड़े ही झेंपते हुए ना तो कर दी पर मन में झंझावात उमड़ पड़ा। लता के ताने दिमाग़ में उठा पटक कर रहे थे। व्यक्ति ने एक बार फ़िर पैसे लेने को कहा। मैंने दीवार की ओर मुँह किये ही झुके सिर के साथ नोट पकड़ लिया। ठंडा पड़ गया। पास रखी कुर्सी पर धम्म से बैठ गया । अभी खुद से भी तो सामना करना था।
दिन भर किसी और से भी आँख मिलाने की हिम्मत नहीं हुई। घर लौटकर भी जल्दी ही सो गया।
लम्बे समय तक ज़मीर की अनसुनी कर देने पर वह भी आवाज़ लगाना बंद कर देता है।
मकान बन गया। लता की ख़ुशी का पारावार न था।
लूट की खुशियाँ। प्रकृति से पैदायशी नाजायज़।
मेरे बढ़ते हौसले को देखकर ऑफिस में एक दिन किसी ने कहा था ” संभल जाओ। नौकरी पूरी ना कर पाओगे।.” ” अपना ख्याल ऱखना। “मैंने पलट कर कहा।
उस दिन आने वाले ने कुछ ना नुकुर की। पर मै टस से मस ना हुआ।
नया मोबाइल अभी बाज़ार में आया है। कल ही विज्ञापन देखा है। ” ठीक है अपनी बारी आने पर आना। बीस जने आपसे आगे हैं। ” मैंने कहा। वह चला गया। दो एक दिन के अंतराल से वह पुनः लौटा और चुपचाप बटुआ खोल दिया। उसके बटुए का खुलना और मेरे भाग्य पर ताला लगना एक साथ हुआ।
शुरुआती झेंप मुझे सलाख़ों से बचाने ही आयी थी।