क्षुब्ध हूँ , क्रुद्ध हूँ
प्रकृति के भेद की
भोग रही पीड़ा हूँ
गिद्ध बनकर नोचते
बोटी नहीं जीव हूँ
भेद तुम्हारा घातक है
क़ुदरत तुमसे रुष्ट हूँ
क्षुब्ध हूँ , क्रुद्ध हूँ
कुंठित कलुषित दरिंदे हैं
कलंक कराह मेरे हिस्से है
मुझसा भयभीत जीवन
मवेशी भी न जीता होगा
अपराधी हैवान है बेख़ौफ़ है
निरपराध मैं हूँ ख़ौफ़ज़दा
क्षुब्ध हूँ , क्रुद्ध हूँ
बना नहीं कोई मलहम
आत्मा के घावों का
दिवस त्यौहार मनाएँगे
पाखंड की कोई सानी ना
संवेदनाएं जम गयी शिला सी
अब पत्थर दिल क्या द्रवित हो
क्षुब्ध हूँ , क्रुद्ध हूँ
व्यवस्थाओं की जब हो बात
ढ़ाक के वही तीन पात
ज़बानी जमा ख़र्च जारी है
पर न्याय दूर की कौड़ी है
थक हार प्रकृति से यही गुहार
बिटिया जन्मे न कोई द्वार