दोपहर । अवकाश के दिनों में आमतौर पर दिनचर्या का कोई विशेष काम इस प्रहर के लिए नियत नहीं होता । यही एक समय होता है जिसे अंग्रेजी के my time की संज्ञा भी दी जा सकती है। इस दोपहरी को अनूठा बनाती है –आस पास फैली चिर शांति और उसके साथ लगभग कदम ताल करते हुए पंखे की आवाज़ । कभी -कभार कुल्फ़ी वाले की टन – टन । बैठे बैठे आज स्कूल के दिनों में होने वाली गर्मियों की छुट्टियां याद आ गयी । उन दिनों दोपहर को कितना लम्बा चाहते थे बता नहीं सकते। शायद ध्रुव प्रदेशों पर होने वाली लम्बी रातों या दिनों के बराबर। ये दीगर बात है कि लम्बे दिन / रात उन्हें अवसाद से भर देते और हमें उत्साह से।
उन दिनों कॉमिक्स पढ़ने का लालच रहता था । पर उनके साथ एक दिक्कत जुडी रहती थी – वे एक आध घंटे में ख़त्म हो जाती थी। कुछ पढ़ पढाकर कुछ उलट पुलटकर । फिर हर रोज एक ही समस्या खड़ी हो जाती सुरसा की तरह मुँह उबाये – अब क्या किया जाये । गौरतलब है छुटपन में भी विशिष्ट तरह की समस्याएं रहती है। बालपन को चिंतामुक्त कहने वालों को इत्मीनान से बैठकर इस पर चिंतन करने की ज़रूरत है।
बहरहाल आवश्यकता अविष्कार की जननी -को आदर्श वाक्य मानकर इसका भी तोड़ ढूँढा जाता -आस पड़ोस के दोस्तों से अदल बदल कर दिन भर में कुछ 3 -4 तरह की कॉमिक्स का जुगाड़ कर लिया जाता। बाद में घर वालों ने हमे सारा दिन चक्करघिन्नी बना देख हमारे प्रबंधन को दुरुस्त किया और एक शख्स घर पर ही खूब सारी पत्र पत्रिकाओं में से चयन करवाने आने लगे । फिर तो हमारे हाथ मौज लग गयी। पढ़ने वाली किताबों / पत्रिकाओं का आकार , पृष्ठ संख्या भी समय के साथ बढ़ने लगी । पढ़ने का चस्का ऐसा चढ़ा की चौथी के स्तर तक आते आते आर्थर हैली की भयानक हादसा पढ़ डाली।
छुट्टियों के बीच में ही परीक्षा परिणाम घोषित होते । उत्साह व बेचैनी दोनों एक साथ। वांछित अंक मिलने पर छुट्टियाँ शानदार गुज़र जाती और न मिलने पर अफ़सोस बना रहता। फिर नयी क़िताबों के चित्रों में , कहानियों में रम जाते। क़िताबों पर बढ़ी हुई कक्षा का अंकन अहसास ज़रूर बड़ा बड़ा सा कर देता था।
अनेको बार घर वालों ने दिन भर की हमारी धमा चौकड़ी को कम करने के प्रयास भी किये। उसी क्रम में अवकाश के दिनों में भी हमारी शिक्षा दीक्षा का प्रबंध किया गया। मास्टरजी घर आते पढ़ाने के लिए या यूं कहें हमारी छुट्टियों के रंग में भंग डालने के लिए । मास्टरजी से उकताकर उनसे भी किनारा करने के तोड़ निकाल लिए जाते।
पढ़ने पढ़ाने से इतर के कलापों में कागज़ की नाव और हवाई जहाज बनाने का हमे Origami का भी ज्ञान था। ये अलग बात है कि उनमे से अधिकांशतः नावें बारिश की बाट जोहते जोहते काल कवलित हो जाती और हवाई जहाज किसी दोस्त से झगडे का आगाज़ करा चुके होते।
बचपन में ज्यादातर सीखना प्रतिस्पर्धावश ही हो पाया। साईकल चलाना भी । साथियों को चलानी आये और आप पीछे रह जाओ , यह असंभव सी बात थी । आलोचकों की फ़ौज तो दिन भर ही इर्द गिर्द रहती । जो किसी भी क्षेत्र में पिछड़ जाने की कोई गुंजाईश ही नहीं छोड़ते । विचारणीय है peer pressure बाल्यकाल में भी मौज़ूद रहता है। आलोचकों से चिढ़ाए जाने की नौबत आने से पूर्व ही काम सीख लिया करते ।
“खोज़ ही लेते हैं यारों हम सुकून
स्मृतियों के किसी कोने में । “