आज जब शिक्षक की बात आयी तो लगा वे तो हर कदम पर मिले हैं सीखने को जिनसे मिला वही शिक्षक। विद्यालय, महाविद्यालय, कार्यस्थल सब जग़ह । खेल, भाषा, विषय के विभिन्न गुरु । हम जाने अनजाने में हर समय आस पास के माहौल से सीखते रहते हैं। कुछ दृश्य अध्यापक होते हैं कुछ अदृश्य जैसे कार्य जो अपनी प्रक्रिया में ही बहुत कुछ सीखा जाते हैं। फिर डाँट, उलाहना, संकट,प्रशंसा । कौन शिक्षक नहीं है। सूची विस्तृत है।
पर जब कभी किसी प्रेरणास्रोत शिक्षक की बात होती है तो सर्वप्रथम तस्वीर जेहन में उभरती है विद्यालय समय की हिंदी की शिक्षिका -मैडम अरुणा की। विद्वता , परिपक्वता और मिठास का साम्य थी। जब वह रामचरितमानस के बालरूप राम की चौपाई का वर्णन करती , अर्थ समझाती तो दिमाग में ऐसा चित्र उभरता जैसे शिशु राम वही खेल रहे हों और हम उन्हें देख रहे हों। साहित्य का रसास्वादन जो उन्होंने करवाया आज भी नहीं छूटा है। बातों ही बातों में हम राम ,रहीम ,कबीर ,रसख़ान सबसे मिल आते।
नाम अरुणा था और थी वे करुणा की प्रतिमूर्ति। “भय बिनु होय न प्रीति” के बजाय उनका व्यवहार “बिनु भय होय प्रीति ” पर आधारित था। याद ही नहीं आ रहा कि कभी उन्होंने किसी विद्यार्थी को ऊंची आवाज़ में कुछ कहा हो। उनकी अरुणिम आभा ही नियंत्रण के लिए पर्याप्त थी।
हिंदी साहित्य में गणित जैसे अंक पाने की क्षमता पैदा करना उन्ही का सामर्थ्य हो सकता था। अनगढ़ को गढ़ने का गुर था उनके पास ।
“आभार आखर का
अच्युत आजन्म l
संजोये मधुर स्मरण
कोटिशः नमन l “