मुर्दहिया
by Tulsiram
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- Publisher: Rajkamal Prakashan
- ISBN: 9788126722792
- Language: hindi
आत्मकथा के माध्यम से स्वयं को खोलकर रख देने का उत्तम प्रयास। किसी को जुदा पढ़ने का शौक हो तो। आदिम जीवन की जानकारियां कह सकते हैं- साहित्य की श्रेणी में होने पर प्रश्नचिन्ह है। हालांकि विचारों को परिष्कृत होने के लिए तमाम तरह की जानकारियां होनी जरूरी है। नितांत भिन्न पुस्तक। लेखक अत्यंत कुशाग्र बुद्धि के प्रतीत होते हैं क्योंकि इतनी सारी इतनी छोटी -छोटी बातों की यादें सहेजना सहज नहीं है। हीनतम समझे जाने वाले तथ्य लिखने की हिम्मत जुटा पाए। शीर्षक आम समझ से बाहर। भाषा सरल है किन्तु लोक जीवन की शब्दावली कठिन । लेखक ने सत्य स्वीकार करने का साहस दिखाया है -" सदियों पुरानी इस अशिक्षा का परिणाम यह हुआ की मूर्खता और मूर्खता के चलते अंधविश्वासों का बोझ मेरे पूर्वजों के सिर से कभी नहीं उतरा ...... " चीर -फाड़ के भयावह दृश्य न देख सकने वालों के लिए न पढ़ने की अनुशंषा। जिस तरह दूरदर्शन के कई धारावाहिको से पूर्व चेतावनी आती है वैसे ही यहाँ - कमजोर हृदय वालों के लिए नहीं है यह पुस्तक । अत्यंत अमानवीय परिदृश्य " मरे पशु के मांस के बंदरबांट में महिलाओ के साथ कुत्तों और गिद्धों में उग्र होड़ मच जाती थी। " इतनी अजीबोगरीब घटनाएं कि आज तक सोच न सकी। क्रूरता की हदें ही पार कर देने वाली - सिहर उठी जानकर की इस तरह की सोच वाले प्राणी सिर्फ एक पीढ़ी पूर्व ही थे " अवैध यौन सम्बन्धों चलते वह युवती गर्भवती रहती तो उसका गर्भपात ....... पेट दबा दबा कर......" कुछ पंक्तियों को तो पढ़ने की हिम्मत ही नहीं जुटा सकी " सूअर को जमीन पर लेटाकर उसकी गर्दन ...." बिना किताब के पढाई और कई ऐसे ही अन्य रोचक तथ्य जैसे " ..... दादी .... सैंतीस उसकी समझ के बिलकुल बाहर था। बड़ी मुश्किल से जब मैंने यह बताया की दो बीस में तीन कम है , तब जाकर दादी को सैंतीस की गुत्थी समझ में आयी।“ "...... सकंठा सिंह.... सवर्ण छात्र .... उन्होंने ही मुझे एक तरह से मजबूर करके लिखना सिखाया था। मेरे लिए कक्षा एक में सकंठा सिंह मुंशीजी से कहीं अधिक सफल शिक्षक सिद्ध हुए।“ "...... उस समय के अध्यापक बरसात बताने पर हर एक का जन्मदिन एक जुलाई .... " इस वाकये के साथ ही ध्यान में आया कि कार्यालय में आज भी अधिकतर सेवानिवृत्ति आयोजन जनवरी और जुलाई के महीने में ही होते हैं। सन सत्तावन की नई परिभाषा " गांव वाले कहते थे कि यह संख्या सताने वाली होने के कारण ही सत्तावन कहलाती है। " पेड़ों के नीचे प्राप्त शिक्षा पर अच्छा व्यंग्य " वर्षों बाद यह समझकर बड़ी संतुष्टि की अनुभूति हुई कि पूरा का पूरा भारतीय दर्शन ही पेड़ों के नीचे सोचा गया था..... गौतम बुद्ध..... " शब्दावली ज्यादा है। प्रक्रियागत वर्णन उबाऊ लगता है। ध्यान भटकता है। भूत , प्रेत , बाबा , अंधविश्वास , शकुन -अपशकुन आदि आदि। लेखक ने पुस्तक के माध्यम से अपने बचपन को सहेज लिया है । उनके प्रति दया , करुणा जैसे भाव पैदा करने के साथ ही विचलित कर देने वाली कृति है। साफगोई बहुत है - छिपने छिपाने की कोई गुंजाइश नहीं रखी है। लोक कथाओं / मान्यताओं के सहेजने की बात से विजयदान देथा याद आ गए। दलित ग्राम्य लोक जीवन का दस्तावेज स्वरुप है किताब। लेखक के हाई स्कूल के परीक्षा परिणाम " ..... सबसे ऊपर प्रथम श्रेणी की लिस्ट में मेरा अकेला नाम था ...." के साथ ही कुछ पुरानी यादें ताजा हो गयी।