कितने ना
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कल फिर मेरे कन्धों पर रखकर बन्दूक चलाने की तैयारी थी । अपने कन्धों का उपयोग या यूं कहें दुरूपयोग होने से इंकार कर दिया। यह ना पूछो वह कितना रिरियाता या बेअदब था पर वह ना था। ना को माहौल इतना अप्रत्याशित मिलता है कि इसमें बनाव श्रृंगार की कोई गुंजाईश ही नहीं रहती। दिन भर दिमाग चाहे हलचल भरा रहता है पर आत्मा पोषित होती है। फील्ड मार्शल मानेकशॉ का कथन एक किताब Soldiering with Dignity से याद आता है कि हर महिला को ना कहना आना चाहिए।
हालाँकि ना लिंग भेद से परे है / किसी भी भेद से ऊपर उठा हुआ है। ना सरहद से लेकर घर तक – एक जवान का सीमा पार से बढ़ते घुसपैठिये को , एक माँ का घर पर बच्चे की जिद्द को , एक कर्मचारी का कार्यालय में गैर विधिक कामों को। ना तनाव को। ना दबाव को। यह रोजमर्रा में चलने वाला खिलाफत आंदोलन सरीख़ा सा है।
सोचें तो ना की प्रकृति धनात्मक है। covid टेस्ट की तरह ना का नकार भी सकारात्मक है। हर ना जो कवच है अनधिकृत के खिलाफ जो ढाल है अस्मिता का, मजबूती का अहसास कराता है। करेले की तरह स्वभाव कड़वा पर प्रवृति शोधनकारी । कुल मिलाकर रूह को रुचता है ये।
ना का पाठ कहीं नहीं पढ़ाया जाता ,कितनी महत्वपूर्ण शिक्षा से वंचित कर दिया जाता है। जीवन के इस पक्ष को हालाँकि महत्व नहीं मिला या कहें अपनी अपनी सहूलियत के लिए इसकी अहमियत को नकार दिया गया । काश होता ना का गीत ना की लोरी।
यद्यपि ना इम्तिहान बहुत लेता है। कभी इसके साथ विश्वास की और कभी सत्यनिष्ठा की परीक्षा जुडी होती है। बहिष्कार का भय जुड़ा रहता है। लेकिन अंततः समय पर किया गया ना संबंधों को स्पष्टता , स्वयं को सुकून देता है।
कभी कभी लगता है कुछ महकमों की तरह रोज का लक्ष्य निर्धारित कर लिया जाये । एक बार ना कहने का। यह बारम्बार अभ्यास/ व्यायाम से मांसपेशियां बनाने जैसा है। ना की भी एक मांसपेशी विकसित कर ली जाये तो अच्छा है।
वैसे धन्यवाद रोज मौका देने वालों का ……… इस बहाने खुद की परख हो जाती है।