रंजिश ही सही
by
- 2.0 Ratings
- 1 Reviews
शब्द नए नहीं इनका उपयोग भिन्न तरीके से /प्रथम बार जैसे जन्नतनशीं , स्मित। “चिपचिपी कवितायेँ , विभागीय राजनीति से बजबजा रहा था , छायावाद रसगुल्ले के शीरे में गिर गया है।“कुछ शब्द समझ से बाहर - आम भाषा से बाहर के शब्दों के लिए ग्लोसरी की कमी खली। व्यंग्य अच्छा है - " मैंने पिछले दस वर्षों में कोई नाटक नहीं लिखा है तब भी मुझे पुरुस्कार दे दिया है। चतुर्वेदी जी फ़ौरन बोले -इसीलिए तो दिया है। " तोषप्रद। किताब पढ़ते वक़्त व्यंग्य से उत्पन्न हंसी रोकना नहीं चाहती थी पर जगह महफूज/ मौजिज नहीं थी -कोर्ट परिसर। जगदीश गुप्त का वर्णन अच्छा बन पड़ा है। नयी कविता में क्या नहीं होना चाहिए - इस पर लिखना भी एक जुदा सोच है। विश्वविद्यालयों की उठा पटक की एक बानगी देखने को मिलती है। शोध छात्र / छात्राओं की दशा/ दुर्दशा के बारें में पढ़ते वक़्त याद आया एक प्राध्यापक ने तो शोध छात्रा के पिता को ही अपने घर के आस पास की झाड़िओं को कटवाने का काम थमा दिया था। भाषायी प्रयोग किये गए हैं। प्रस्तुतीकरण में नयापन है -कहावत ,उक्ति , दोहों , अन्य कथन या कथ्य जैसे भी- इसे चुटीला बनाया जा सके प्रयास किया गया है। बिलाशक अपनी तरह का बेबाक प्रस्तुतीकरण है। “साहित्य में न आरक्षण चलता है और न रिश्तेदारी। " समझ नहीं आया लेखक में नामवर सिंह जैसा कद्दावर न बन पाने की खुन्नस है अथवा आदर्शस्वरूप बार बार याद किया गया है। अति सर्वत्र वर्जयेत यहाँ भी - अति स्वत्व। शायद संस्मरण इसी वजह से कथेतर विधाओं में प्रथम स्थान नहीं बना पाया।पात्रों की भीड़ कन्फ्यूजन पैदा करती है , थोड़ी देर बाद दिमाग कैलकुलेशन करना छोड़ देता है - कौन , क्या , कहाँ। संस्मरण भी तभी पसंद आते हैं जब आप उनसे जुड़ पाएं। किस्सागोई अधिक है। रीयलिस्टिक एप्रोच वाले रीडर को शायद यह पसंद न आये। कहीं कहीं लगता है पुस्तक पढ़ी गयी किताबों की संख्या में इजाफा मात्रा है। अग्रिम पांत की पत्रिका में इस पुस्तक की अनुशंषा थी। अमूमन सटीक पाती हूँ, इस बार भ्रमित हो गयी - शायद अतिरंजित थी अथवा गप्पाजी होने के कारण स्वादानुसार नहीं पायी।