संकलित निबंध
by Namwar singh
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- Publish date: 2010
- Publisher: National Book Trust India
- Original Title: संकलित निबंध
- ISBN: 978-81-237-5863
- Language: Hindi
इस पुस्तक के लेखक श्री नामवर सिंह को कुछ वर्षों पूर्व कवि हरीश भदानी की स्मृति में आयोजित समारोह में प्रथम बार सुना था , इच्छा हुई अनंत काल तक उन्हें सुनती रहूँ ।परन्तु आज पुस्तक के वाक्य समझने हेतु भी दिमाग पर इतना दबाव था कि नींद रास्ते से हट गई । समीक्षा के क्षेत्र में अपूर्व मार्गदर्शक । लेखन का स्तर अतुल्य है , पठन में ही महानता का अनुभव कर रही हूँ । माध्यमिक / उच्च माध्यमिक कक्षाओं की स्मृति निरंतर जेहन में उठ रही है, जब हिंदी साहित्य की पुस्तकों में एक /दो ऐसे लेख अवश्य शामिल रहते थे , पठन -पाठन भी होता था किन्तु तब इनकी उपयोगिता ना कोई समझा पाया ना कभी स्वयं ही समझने की चेष्टा ही की । तृप्ति महसूस हो रही है कुछ अर्थपूर्ण पढ़ने से । "फ़ूड फॉर थॉट " सुना ही था आज महसूस कर रही हूँ । साहित्य की समझ का अदभुत ग्रन्थ कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा । आलोचना का मूल तत्व बताते हुए नामवर सिंह कहते हैं कि "....... आलोचना के सामने असली सवाल सामाजिक यथार्थ का नहीं बल्कि उस यथार्थ की विकृतियों के अध्ययन का है।.... " सार्वभौम लेखक को नितांत भिन्न तरीके से परिभाषित करते हुए कहते हैं कि "...... अपने देश काल से जड़ से कट जाने पर वह स्वभावतः सारी दुनिया का हो जाता है। ...." किस किस पंक्ति को रेखांकित किया जाये , वस्तुतः यह पुस्तक रेखांकन के महत्व से ही परे है। कहानी की व्याख्या के दौरान मात्र अच्छा या सफल कहने के विरुद्ध लेखक का तर्क है कि "..... 'अच्छेपन ' को और ' सफलता ' को अधिक ठोस और युक्तिसंगत रूप में उपस्थित करने की आवश्यकता है।"...... परन्तु मेरा मानना है की इस हेतु व्यक्ति में काबलियत भी तो हो तभी ठोस व युक्तियुक्त तार्किकता होगी। अब तक कहानी के उद्देश्य के बारे में यही समझ थी की यह मनोरंजन का साधन है, “सच की खोज” का लक्ष्य - नितांत नया लगा।"....... कहानियां ...... सच की खोज के कारण ही कालजयी हो सकी है। " "अतिपरिचय में अवज्ञा का भाव होता है। " कहानी के साथ साथ लेखक ने रिश्तों का भी विशलेष्ण कर दिया। "मुक्त छंद की रूढ़ि से मुक्ति " जैसे संकलन को पढ़ते वक़्त खुद में समझ के खाँचो का अभाव पाया , शायद लेखक ने हिंदी साहित्य के सुधि पाठकों को ध्यान में रखकर ही इनको शामिल किया है। "मुक्त छंद की रूढ़ि से मुक्ति " में उदाहरणों का कमी खली । उदाहरणों की उपस्थति समझ को बेहतर बना सकती थी। पढ़ कर ऐसा लग रहा है कि पुस्तक की बेहतर समझ हेतु हिंदी साहित्य का मूल ज्ञान होना आवश्यक है। स्वयं लेखक की स्वीकारोक्ति है कि वह मूलतः काव्य -आलोचक है , कविताओं की समीक्षा का बाहुल्य शायद इसी वजह से है। आलोचना के शिखर पुरुष की समीक्षा हेतु खुद को सक्षम नहीं पाती हूँ , पुस्तक के बारे में यह मेरा मंतव्य मात्र ही है। कृति संग्रहणीय है।