आखिरी चट्टान तक
by Mohan Rakesh
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- Publisher: Bhartiya Gyaanpeeth
- ISBN: 978-81-263-1932-9
- Language: hindi
आखिर तलाश पूरी हुई एक देसज की लेखनी से - दक्षिण भारत को जानने की । ज़िन्दगी की उठा पटक से दूर - बेहद हल्का फुल्का सुकून देने वाला यात्रा – वृतांत । न कोई ऐतिहासिक वर्णन और न ही स्थानीय गाथा - बल्कि जो राह में मिलता चला वही पात्र बन गया। पुस्तक में शहरों ने कम या कहें राहगीरों ने ही स्थान पाया है । अदभुत उपमाएं -" उन आँखों में सारस का विस्मय है और दरिया की उमंग। "- जो मोहन राकेश की पहचान है। किसी फिल्म की भांति अपनी लेखनी से ही चलायमान दृश्यों के चितेरे -"..... जंगल में दूर तक घास के सरसराने की आवाज़ सुनाई दे जाती है। तभी हवा किवाड़ बंद ...... " यात्रा के सम्बन्ध में प्राय महसूस होने वाली दुविधा को शब्द देते हुए "...... यात्रा के लिए समय और साधन साथ -साथ मेरे पास कभी नहीं रहते ...." पूर्णतया सही लगते हैं जब लेखक कहते हैं "...... सभी जगहें अपरिचित थी , इसलिए मुझे सभी में आकर्षण लग रहा था। " लेखक द्वारा किताब को छोटे -छोटे शीर्षक में बाँटना -यह लेखक की अपनी सुविधा/ इच्छा हो सकती है अन्यथा इस ओर ध्यान ही नहीं जाता। "पंजाबी भाई" नन्दलाल कपूर के रूप में -कोई व्यक्ति किस हद तक उबाऊ हो सकता है / पका सकता है - अच्छा बन पड़ा है। वर्णन इतना प्रवाहमयी है कि पठन में एक लय बनी रहती है। किताब को जल्दी ख़तम करने की चाह नहीं , बार -बार उन्ही पंक्तियों को पढ़ने की इच्छा होती है। मोहन राकेश के लेखन से परिचय " आधे -अधूरे " से हुआ। दम घोटू जिंदगी का ऐसा उल्लेख था कि पुस्तक आज भी दिमाग में बसी हुई है। गुनाह की नई परिभाषा जानने को मिली "..... किसी की इज़्ज़त लूटता हूँ..... तो उसकी रूह को सदमा पहुंचता हूँ। यह गुनाह है। मगर मैं किसी ख़बीस की जान लेता हूँ , तो...... यह गुनाह नहीं है। " पढ़कर लगा कि इत्तफाक तो मैं भी इससे रखती हूँ "मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है - ...... कि बस या ट्रेन में मैं जिस खिड़की के पास बैठता हूँ , धूप उसी खिड़की से होकर आती है। " निश्चित हुआ कोई धर्म अछूता नहीं " मन में मूर्तियों के उस व्यापारी के विषय में सोच रहा था जो रात को सरमन देने गया था...." छोटे शहर होने के आनंद की व्याख्या "....... उनमे वास्को सबसे सुन्दर है - दो -चार पंक्तियों की एक छोटी सी भावपूर्ण कविता की तरह। " पंक्ति "...... मालवार में साल में नौ महीने गर्मी पड़ती है , और बाकी तीन महीने बहुत गर्मी पड़ती है। " से अनायास ही बीकानेर की तुलना हो गयी। मालाबार की बात करते हुए लेखक लिखते हैं "दिवाली एक सीमित वर्ग में ही मनाई जाती है। होली और वसंत वहां नहीं मनाये जाते। "- अब जब समाचार वाचक कहेगा होली/ दिवाली पूरे देश में मनाई गयी तो उसकी खबर पर संदेह होना लाजमी है। " जब गाड़ी तेल्लीचेरी स्टेशन पर रुकी , तो मैंने बिना ज्यादा सोचे अपना सामान गाड़ी से उतरवा लिया। "-पता चला अच्छी पुस्तकें ऐसे ही नहीं लिखी जाती , सनक और अनुभव चाहिए। अतिशयोक्ति नहीं - ऐसे लेखकों से पुरुस्कार ही सम्मानित होते हैं।