वह भी कोई देस है महाराज
by Anil Yadav
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- Publisher: Antika Prakashan
- ISBN: 9381923000
- Language: hindi
पुस्तक की शुरुआत लेखक ने सर्वथा भिन्न तरीके से की है -ऐसी कि मार्केटिंग विशेषज्ञों को तो शायद मितली आ जाए \" पुरानी दिल्ली ...... टूटी खिड़कियों पर उल्टियों से बनी धारियां झिलमिला रही थी ....... \" पूर्वोत्तर की जमीनी हक़ीक़त- श्याह पक्ष से परिचय कराती पुस्तक। किताब का शीर्षक उपयुक्त चुना है। माहौल की घुटन बहुत गहराई से महसूस होती है \" हर तरफ खून, लाशों और आशंकाओं की गंध से भरी हवा ....\" पढ़कर यही लगता है की \"वह भी कोई देस है महाराज। \" पर कटु सत्य तो यही है कि - देस तो वह है ही महाराज , प्राणी जो बसते हैं वहां। ठिठक उठी अपने साथी के वहां पदस्थापन से , जानकर कि \" पंगसा के नागा....... उपज बढ़ाने के लिए खेतों में जिन्दा दफनाते थे। \" ऐसा लगता है उस इलाके में पुलिस , गोली, हत्या उल्फा, सुल्फा , शव के अतिरिक्त किसी का वज़ूद ही नहीं। या फिर कहें समस्त वज़ूद इन्ही के इर्द -गिर्द। बारिश मल्हार के अतिरिक्त वहां आत्महत्या को भी प्रेरित करती नजर आती है। अब तक जीवनियों की महिमा पढ़ी थी परन्तु पहले यात्रा-वृतांत \"वोल्गा से गंगा \" और अब \" वह भी कोई देस है महाराज \" राय बदल देने वाली कृतियां हैं। लगा किसी नए, अनजान लेखक को यूँ ही त्यागना भूल है। बेहतरीन उपमाएं \" यह मंगोल भारत था जिसका गंगा के मैदान वाले आर्य सिपाही से संवाद कठिन था। \" ऐसा लगता है जब व्यक्ति स्वयं पर व्यंग्य कसता है तो वह बेहतरीन होता है । \"....... विश्वास था कि पूर्वोत्तर जाकर हम जो रपटें..... भेजेंगे ..... उससे .... धूमकेतु की तरह चमक उठेंगे। \" जिंदगी का सार व्यक्त करती पंक्तियाँ \"....... यह ट्रेन मजबूर लोगो से भरी हुई है। उन्हें वहां लिए जा रही है जहाँ वे जाना नहीं चाहते। \" अक्सर आम बोल-चाल में \"मैं \" की जगह \"हम\" का प्रयोग \" हमारा नाम ....... है। \" से उत्पन्न भ्रम की स्थिति \" मैं पता नहीं अपने सिवा किन और लोगों को अपने भीतर शामिल करते हुए इस नाम को खींचता हूँ। \" नए तथ्यों से परिचय - \" असमियां जबान में \'च \' गायब है। चाय \'सा \' होती है। \" धर्म का मनन अच्छा लगा \" ...... अगर कभी मेरा कोई धर्म हुआ तो वह ऐसा ही सादा , इकहरा और पवित्र होगा। \" ताकत के सामने दबे सत्य का उल्लेख \" भारतीय किसान यूनियन की रैलियों में मुज्जफरनगर , बागपत के जाट वातानुकूलित डिब्बों के परदे तक नोच कर चिलम पर तमाखू के साथ पी जाते हैं तब ये टिकट बाबू किसी कोने में सिमटे हुए जान और नौकरी की खैर मनाते रहते हैं। \" लेखक, लेखन की शर्त - बेबाक होना - पूरी करते हैं।फिल्मों की भांति यदि किताबों को \' ए \' सर्टिफिकेट मिलता तो पुस्तक उसी सर्टिफिकेट से नवाजी जाती। पुस्तक में प्रवाह बना रहता है - हास्य, अवसाद भय , सब अपनी जगह उपयुक्त है।करीब करीब हर पंक्ति में एक अलग दुनिया की अजीबोगरीब जानकारियां उदघाटित होती है। एक निश्चय - अब किसी देशज की लेखनी से ही दक्षिण भारत को जानूँगी।